क्या मैगस्थनीज ने ब्राह्मणों का उल्लेख नहीं किया है?

 आज हमारे पास मैगस्थनीज की असली इंडिका उपलब्ध नहीं है। मैगस्थनीज तो छोडिये, अन्य प्राचीन ग्रीक - रोमन दार्शनिकों, यात्रियो, गणितज्ञों, इतिहासकार व काव्य कारों के मूल ग्रंथ आज विलुप्त ही हैं। 

किंतु उनके शेष हिस्से विभिन्न लेखकों की पुस्तकों में मिलते हैं। इसी तरह इंडिका के विभिन्न हिस्से प्राप्त होते हैं। इन सब हिस्सों का संग्रह और अंग्रेजी अनुवाद J. W. McCrindle ने सम्पादित किया था। 

अत: हम उसी संग्रह के आधार पर निर्णय करेगें कि मैगस्थनीज ब्राह्मणों का उल्लेख करता है अथवा नहीं। 

Fargm. XLI , strab. XV . 1. 58 - 60 में indian philosophers के बारे में आया है - 



- Ancient India as Described by Megasthenes and arrian, pp. 98 - 99

यहां दार्शनिकों के दो वर्ग कहें हैं - ब्राचमेनस् और सरमनोज्। 

इनमें से ब्राचमेनस् के बारे में लिखा है कि वे मृगचर्म या तृण के बिछौनों पर बैठते और सोते हैं। वे लोग बचपन से किसी उपदेशक के अधीन रहकर निपुण होते हैं, वहां वे 37 वर्ष तक रहते हैं। इस दौरान गंभीर दार्शनिक चर्चायें करते हैं और मांसाहार तथा विषय सुखों से दूर रहते हैं। इसके उपरान्त लगभग 37 वर्ष बाद वे अपनी सम्पत्ति पर वापस लौटते हैं। वे मांस खाते हैं किंतु उपयोगी पालतु पशुओं का नहीं खाते हैं। वे अनेक पत्नियां रखते हैं और सोना पहनते है। 

यहां निम्न बातें तुलनीय है - 

(1) यहां गुरुकुल या उपदेशक के पास 37 वर्ष का काल बताया है। इसकी तुलना हम मनुस्मृति के 3.1 से करते हैं - 


    - मनुस्मृति 3.1 

इसमें अध्ययन का अधिकतम समय 36 वर्ष दिया है अर्थात् 36 वर्ष अध्ययन काल मिलाकर स्व सम्पत्ति को सम्भालने में लगभग 37 वर्ष लगते होगें। अत: इससे लगता है कि मैगस्थनीज द्वारा ब्राचमेनस् से ब्राह्मणों (वैदिक) का ही उल्लेख किया है। अत: उस समय भी इस व्यवस्था के चिह्न दिखते हैं। 

(2) यहां गृहस्थ होने पर मांसाहार बताया है। जबकि जेनों में मांसाहार नहीं है, बौद्धों में सभी मांस खा सकते हैं किंतु शर्त यह है कि उस पशु का मारा जाना देखा, सुना न हो। जबकि मध्यकाल क्रम में ब्राह्मणों द्वारा मांसाहार और बहु पत्नि प्रथा का प्रचलन भी हो गया था। इसलिए इन्हें वैदिक मत के ही ब्राह्मण मानना उचित है। 


कुछ व्यक्तियों ने यह मूर्खता की है कि यह शब्द संस्कृत का नहीं है। अत: उस समय संस्कृत नहीं थी। किंतु इन मूर्खों को यह भी पता नहीं है कि यह शब्द पालि, प्राकृत, अपभ्रंश या पैशाची का भी नहीं है। तो क्या उस समय ये सब भाषायें नहीं थी? वास्तव में भारतीय शब्दों और परम्पराओं को मैगस्थनीज या उसके संग्रहकर्ताओं ने अपनी भाषा और भावों में दर्शाया है। अत: ब्राचमेनस् की समानता ब्राह्मण से ही सटीक बैठती है। जबकि जैन - निगंठ, आजीवक - आजीवक से ब्राचमेनस् शब्द बनना ही असम्भव है। 


अनुवादक McCrindle ने भी 37 वर्ष के कथन की तुलना मनुस्मृति से ही की है- 


   - ibid. 99 (notes) 

जैसे विभिन्न मतों में दार्शनिकों की विभिन्न परम्परायें और वेशभूषा आदि होती हैं। उसी तरह वैदिक दर्शन के अंतर्गत भी सन्यासियों और दार्शनिकों की विभिन्न परम्परायें थी। इनमें से कुछ नग्न अवस्था का भी पालन करते थे। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में हमें परिव्राजक के नग्न होने का भी उल्लेख प्राप्त होता है -


 - आपस्तम्ब धर्मसूत्र 9 पटल, 2 प्रश्न, 12 

इस सूत्र से यह प्रमाणित होता है कि नग्न सन्यासी या दार्शनिक केवल जेन या आजीवक ही हो, ये आवश्यक नहीं है। ब्राह्मणों या वैदिकों में भी नग्न रहने वाले सन्यासियों की परम्परायें थी। 

अब मैगस्थनीज के जिन अपशिष्ट भागों में नग्न सन्यासियों का उल्लेख हुआ है। उन्हें देखते हैं - 




    - ibid fragm. LIV page 120 - 122

इसमें ब्राचमेनस ् को नग्न बताया है, वे पक्का भोजन न लेकर जंगली फल मूल पर ही निर्भर रहते हैं। यह लोग मांस और विषय भोगों से दूर रहते हैं। 

कुछ लोग इनको नग्न लिखा हुआ देखकर कह देते हैं कि यह लोग आजीवक और जेन होगें। जबकि हम ऊपर दिखा चुके हैं कि वैदिक दार्शनिकों की परम्परा में भी नग्न परिव्राजक थे। ये जैन या आजीवक नहीं है, इसका प्रमाण उपरोक्त चित्रों को ध्यान से पढने पर हो जाता है। 

ये लोग आत्मा, ईश्वर को मानते थे। यहां लाल रंग से अंकित की हुई लाईनों पर लिखा है - इन लोगों का मानना है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है, जिसे ईश्वर ने दिया है। वे ईश्वर को प्रकाशस्वरुप मानते थे किंतु यह प्रकाश भौत्तिक प्रकाश से भिन्न है। अत: मैगस्थनीज द्वारा वर्णित यह नग्न सन्यासी आस्तिक थे। जबकि आजीवक और जेनों में ईश्वर, आत्मा का कोई स्थान नहीं है। अतैव यह जैन, बौद्ध, आजीवक न होकर वैदिक परम्परा के ही परिव्राजक वर्ग है। दूसरा जैन आजीवक प्रायः अपने विहारों में रहते थे और ये लोग जंगल में रहते हैं जो कि वैदिक धर्म की वानप्रस्थ परम्परा को दर्शाता है। मैगस्थनीज ने इन्हें तगवेन (संस्कृत - तुंगवेणु) नदी के तट पर देखा था। 

जैसा हमने बताया कि वैदिकों में दार्शनिकों व सन्यासियों की विभिन्न परम्परायें थी। इनमें से दो का वर्णन ऊपर मैगस्थनीज के प्रमाण से हो चुका है। तीसरा प्रकार fragm. LIV के पेज 121 - 122 पर दिया है, जिनके चित्र ऊपर ही दिये हैं। 

इनके बारे में लिखा है कि "यह लोग विवाह करते हैं। यह लोग ईश्वर को साकार मानते हैं। ये लोग मानते हैं कि बाहरी परिधान की भांति ईश्वर शरीर धारण करता है। जब वो शरीर धारण करता है तब वह नेत्रों का विषय हो जाता है। " 

यह वर्णन साकारवाद और अवतारवाद को पुष्ट करता है। यह दोनो मान्यताऐं जैन, बौद्ध, आजीवक में न होकर पौराणिक हिंदूओं में ही है। 

अत: ब्राचमेनस से ब्राह्मणों का ही उल्लेख है। 

नग्न ब्राचमेनस का ऐसा ही उल्लेख मैगस्थनीज के अन्य अवशिष्ट हिस्से में भी हुआ है किंतु वहां अंतर यह है कि वहां Brachhmans के स्थान पर (Bragmanes) लिखा है।


  - ibid, fragm. LV pp. 123 
यह भेद मात्र भाषा भिन्नता के कारण है। इनका अर्थ ब्राह्मण ही है। इसकी पुष्टि में हम कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शब्द व्युत्पत्ति के विशेषज्ञ (Etymologist) Walter W. Skeat की पुस्तक Principles of English etymology का प्रमाण देते हैं -

- Principles of english etymology, ch. XX, δ 291 sanskrit, pp. 411
इसमें Bragman शब्द को लैटिन का बताया है, जिसका संस्कृत मूल ब्राह्मण दर्शाया है। इस शब्द को 14 वीं शताब्दी में लैटिन से लिया है। जहां एक गरीब ब्रागमनेस की बात की है। लेखक ने उदाहरण में "The Bragmanus pore" का अंग्रेजी अनुवाद i. e. The poor brahmins किया है। अतः शब्द व्युत्पत्ति अर्थात् bragman की निरुक्ति से इसका संस्कृत मूल ब्राह्मण ही सिद्ध है। आजीवक, जेन, बौद्ध से ब्रागमेन, ब्राचमेनस कोई भी शब्द बनना सम्भव ही नहीं है। 
लेखक ने भी अलैक्जेंडर और डंडमिस् के मैगस्थनीज वाले वृतांत का उल्लेख किया है। इसमें लेखक ने ब्रागमनेस डंडमिस् को ब्राह्मण बताया है तथा डंडमिस् को संस्कृत के दंडिन् से बताया है। अतः जो परिव्राजक दंड धारण करता है, वह दंडी कहलाता है। सन्यासी के दंड धारण करने का उल्लेख मनुस्मृति 6.52 में भी है। लेखक ने भी मनुस्मृति का उल्लेख किया है - 

 - मनुस्मृति 6.52 
अतः सिकन्दर भारत में जिस दंडमिस् से मिला था। वह उसका औपाधिक नाम था जो उसके दंड धारण करने के विशेषण के आधार पर था। जिसका लैटिन डंडमिस और संस्कृत दंडिन् है। 
McCrindle ने डंडमिस् और सिकन्दर की बहस का संग्रह निम्न प्रकार से किया है - 

   - ibid. Fragm. LV, page 124.
जब सिकन्दर अपने दूतों को दंडी के पास भेजता है। तब दूत दंडी के पास जाकर कहते हैं कि - " तुम्हें शक्तिशाली समस्त मनुष्यों के ईश्वर सिकन्दर ने बुलाया है। अगर तुम उसके पास गये तो वह तुम्हें सम्मानित करेगा और नहीं गये तो वह तुम्हारा सिर काट देगा। 
इस पर दंडमिस् मुस्कुराकर बोला - सर्वोपरि ईश्वर कभी बलात् हानि नहीं करता है। वह प्रकाश, शांति, जीवन, जल और मनुष्यों के शरीर और आत्मा का कर्ता है। .. . . वही अकेला मेरी अराधना का देवता है जो घृणा व हिंसा से परहेज रखता है। किंतु सिकन्दर ईश्वर नहीं है क्योंकि उसे मृत्यु को चखना होगा। " 
इस वर्णन से स्पष्ट है कि ब्रागमनेस का प्रमुख दंडमिस् भी आस्तिक और ईश्वर को सृष्टा तथा अमर मानने वाला था। 
अत: इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैगस्थनीज ने ब्राह्मणों का ही उल्लेख किया है। 
यहां ब्रागमनीज या ब्राचमेनस को जेन बताया जाना एक षड्यंत्र है। जिसका उद्देश्य यह है कि हिंदुओं और जेनों में आपसी टकराव, मनभेद उत्पन्न किये जायें। यह काम बौद्ध बहुत समय पूर्व से करते आ रहे हैं। जैसे - अन्य मतों के महापुरुषों का मजाक बनाना, उनकी उल्टी समीक्षायें करना, इतिहास को तोड मरोडकर प्रस्तुत करना आदि। 
उन्हीं के अनुयायी नवबौद्ध भी ऐसा ही करते हैं, उनके इस बौद्धिक आतंक से ही परेशान होकर अन्य मतस्थ व्यक्ति उन्हें यथायोग्य उत्तर दे रहे हैं। हमारा मानना है कि मैगस्थनीज ने ब्राचमेनस से वैदिक तथा सरमनज से जैन श्रमणों का उल्लेख किया है। किन्तु यह बुद्धि विदूषक नवबौद्ध जेन और हिंदूओं के मध्य में मनभेद लाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को तोड मरोडकर ब्राचमेनस को जेन व आजीवक तथा सरमनज को बौद्ध सिद्ध कर रहे हैं। जिससे जेन बौद्ध की मिथ्या एकता प्रचारित की जा सके तथा जेनों को हिंदूओं का विरोधी कहा जा सके। किंतु राष्ट्रवादी जेन भाई भी जानते हैं कि जैन तीर्थंकरों का हिंदू महापुरुषों से करीबी रिश्ता रहा है। जैन मंदिरों के अभिलेखों और जेन ग्रंथों में श्रीकृष्ण जी को नेमिनाथ का भाई बताया है। लेकिन जब हम जेन और बौद्धों के मध्य देखते हैं तो हमें दोनों के बीच एक संघर्ष नजर आता है। त्रिपिटकों में जेन गणधर निगंठनाथपुत्त का गौतम बुद्ध जगह - जगह मजाक बनाते हैं। श्रीलंका में एक जेन विहार का विध्वंस बौद्ध राजा करता है। जिसका उल्लेख महावंस में है। दिव्यवदान के अशोकावंदन की कथा के अनुसार बौद्ध अशोक निग्रंथों और आजीवकों की हत्याऐं करवाता है। ऐसी अनेकों बातें बौद्धों द्वारा जेनों को हीन सिद्ध करने के लिए लिखी गयी थी। सम्भवतः जैसे आज नव बौद्धों से जेन, महायानी बौद्ध, हिंदू और अन्य सम्प्रदाय के लोग परेशान है, क्योंकि ये लोग धार्मिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक आदि तथ्यों को तोडकर अपनी कल्पनाओं और कुठांओं को सत्य साबित करने का प्रयास करते हैं। इसीलिए बाकि सभी सम्प्रदाय अपने - अपने स्तर पर इन्हें जबाब दे रहा है। उस समय भी लगभग 1000 ईस्वी में जब बौद्धों के अपमान से जेनाचार्य उब गये थे तब उन्होनें बौद्धों से शास्त्रार्थ किया और बुद्ध की मुर्ति को अपने पैरों से तोडा। ये समझा जा सकता है कि संघर्ष और मनभेद को बौद्धों ने अपनी कुतर्क करने की नीति और खुद को श्रेष्ठ दिखाने की सनक में अत्यधिक बढा दिया था। जिसके कारण अंहिसा प्रेमी जेनाचार्यों को बुद्ध प्रतिमा तोडने को मजबूर होना पडा था। 
ऐसी ही एक घटना का उल्लेख शक सम्वत् 1050 के श्रवणबेलगोला की चिक्कबेटा पहाडी से मिले एक अभिलेख में भी है। जिसका प्रकाशन Epigraphia indica के Vol. 3 मेंno. 26 Sarvana -Belgola epitaph of mallishena में हुआ है। जिसमें अभिलेख का मूलपाठ और अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रस्तुत किया गया है। इस अभिलेख के अनुसार जेनाचार्य अंकलन ने बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराया था तथा बुद्ध प्रतिमा को पैरों से खंडित कर दिया था। यहां हम अभिलेख का मूलपाठ और अंग्रेज़ी अनुवाद भी देते हैं -






-  Epigraphia Indica Vol.3, pp. 184 - 202 
अत: दोनो मतों के मध्य भयंकर आपसी प्रतिस्पर्धा रही है। आज भी अगर नवबौद्ध चाहते हैं कि सब लोग मिलजुलकर रहे और आपसी संघर्ष, टकराव न हो तो उन्हें तथ्यों को तोड मरोडकर झूठ फैलाने से बचना चाहिए। जिससे ऐसे आपसी विवाद आपस में न होवें। महापुरुषों और धर्मग्रंथों पर मनमाने आक्षेप और ऐतिहासिक वृतांत को गलत रुप में प्रस्तुत करने से बचना चाहिए। 
हमने यहां यह समस्त प्रमाणों और तुलनाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि मैगस्थनीज ने ब्राह्मण दार्शनिकों का ही वर्णन किया था। जेनों का विशेष विरोध बौद्धों से रहा है, न कि हिंदूओं से। 
संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तकें - 
1) Ancient India as described by megasthenes and arrian - J. W. McCrindle 
2) आपस्तम्ब धर्मसूत्र - अनु. डॉ. उमेशचंद्र पाण्डेय:
3) मनुस्मृति - अनु. डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी 
4) Epigraphia Indica vol. III 
5) Principles of english etymology - REV. Walter W. Skeat 


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