बौद्धवादी पितृसत्ता समाज
आजकल एक अभियान वामपंथियों और अम्बेडकरवादियों के द्वारा बडे ही जोरो शोरो से चल रहा है, जिसका नाम है - ब्राह्मणवादी पितृसत्ता।
ये लोग पितृसत्ता का विरोध करें और महिला स्वतंत्रता को बढावा देंवे, वो बात तो कुछ - कुछ समझ में आती है किन्तु इनके द्वारा एक धर्म और उस धर्म में भी किसी समाज या जाति विशेष को निशाना बनाना इनकी ईर्ष्या और षड्यंत्र को दर्शाता है। इन्हें पितृसत्ता केवल ब्राह्मणों में ही दिखती है किन्तु मुस्लिम, ईसाई और बौद्धों में नही दिखती है।
क्या आदम की पसली से हव्वा का होने का उदाहरण पितृसत्ता को बढावा देने वाला नही है?
क्या नारियों को बुर्के और हिजाब में ही रखना पितृसत्ता का उदाहरण नही है?
ऐसे अनेकों बातें अन्य मतों में भी मिल जाएगी किन्तु फिर भी इसे मात्र ब्राह्मण पितृसत्ता नाम देना इनकी कुंठित मानसिकता ही है।
अब एक नजर बौद्ध धम्म पर भी डाल देते हैं, जिसमें पहले बौद्ध संघ में गौत्तम बुद्ध ने महिलाओं के प्रवेश को निषेध कर दिया था, इस पर आन्नद और बुद्ध में बहस भी हुई किन्तु आन्नद की जिद के कारण बुद्ध को भी संघ में महिलाओं के प्रवेश की बात को मानना पडा। लेकिन बात यही तक खत्म नही हुई थी। भले ही आन्नद की वजह से संघ में महिलाओं का प्रवेश हो गया था किन्तु तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओं ने इसे अपने मन से स्वीकार नही किया था जिसका परिणाम बौद्धवादी पितृसत्ता समाजयह हुआ कि गौत्तम बुद्ध की मृत्यु के बाद संघ में महिलाओं के प्रवेश के लिए आन्नद को भिक्षु संघ से क्षमा मांगने के लिए विवश होना पडा था। इसके लिए विनय पिटक का निम्न प्रमाण अवश्य देखें -
यहाँ चित्र में ध्यान से पढ सकते हैं कि बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद जब उनके शरीर का प्रथम दर्शन स्त्रियों से करवाया गया था तो इससे बौद्ध भिक्षुक बहुत नाराज हो गये थे और उन्होने आन्नद से क्षमा याचना भी करवायी थी।
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