देवी दुर्गा की मूर्तियों की प्राचीनता

 Ankit Jaiswal (Sandeep) 's Reserch..

यूँ तो भारतीय क्षेत्र में प्रजनन की देवी के दृष्टि से मातृदेवी की पूजा के साक्ष्य पाषाण काल से ही मिलने शुरू हो जाते हैं लेकिन इनकी पूजा-उपासना के पूर्णतः सबूत हम सिन्धु सभ्यता की कला में देख सकते हैं।


हम बात करें वर्तमान में लोकप्रिय देवी महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की तो इनकी प्राचीनतम मूर्ति जो हमें पुरातत्व से मिली है वह पहली सदी ई0पू0 से पहली सदी ई0 के बीच की है यानी कि आज के 2000-2100 साल पहले की। यह प्रतिमा सोंख नाम के जगह से एक ऐप्साइडल मंदिर के खंडहरों में मिली है। इसी मंदिर के खंडहरों से एक पत्थर की पट्टिका भी मिली है जिस पर मातृदेवी की मूर्ति उकेरी गई है। संभावना है कि यही पट्टिका की मातृदेवी सोंख के मंदिर संख्या-1 की अधिष्ठात्री देवी थीं। इसके पुरातात्विक सबूत को और अधिक प्रमाणित करने के लिए हमारे पास कुषाण कालीन सिंहवाहिनी चार भुजाओं वाली देवी महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति भी उपलब्ध है। ऐसी ही चार हाथों या छः हाथों वाली देवी मूर्ति पुरातत्व में पहली सदी के बाद से ही मिलनी शुरू हो जाती हैं जिनका विकसित रूप हमें गुप्तकाल मे देखने को मिलता है जब देवी को अस्त्र-शस्त्र, वाहन और लक्षणों सहित बनाया जाने लगा। ब्राह्मण हिन्दू धर्म के साथ ही इन देवी मूर्तियों का संबंध बौद्ध और जैन धर्मों के साथ भी देखने को मिलता है।


इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि पहली सदी के आसपास मिलने वाली देवी दुर्गा की प्रतिमा में अस्त्रों और वाहन का विकास कम देखने को मिलता है, वाहन तो वाकई गुप्तकालीन संकल्पना लगता है। विशेष बात ये है कि इन प्राचीनतम मूर्तियों में कहीं-कहीं देवी को बच्चा लिए हुए तो कहीं अपने स्तनों से दूध धारिणी रूप में दिखाया गया है(आप कल्पना कीजिये हमारे प्राचीन मूर्तिकारों के सोच का, जबकि इस समय अभी प्रतिमा-मानक बहुत विकसित न हुआ था और ये मूर्तिकार अपनी कला में स्वतंत्र थे कुछ भी जोड़ने-घटाने, बनाने के लिए)।


कुषाणकाल के बाद महिषासुरमर्दिनी दुर्गा का रूप इतना लोकप्रिय हुआ कि इनको मातृका के रूप में 7,10,12,16 आदि की सँख्या में माना जाने लगा। चौसंठ योगिनी इन्हीं मातृकाओं का विकसित स्वरूप है। एक जगह तो यह लिखा गया है कि लोक में देवियों की संख्याओं का कोई अंत नहीं है अर्थात प्राचीन काल से ही लोकपरंपरा में हर वर्ग और क्षेत्र की अपनी-अपनी मातृदेवी मौजूद थीं(टेराकोटा की मातृदेवियाँ ताम्रपाषाणिक सभ्यता-"5000 साल पहले" से ही भरपूर मात्रा में मिलती हैं)। प्राचीन धोबी,तेली,कुम्हार आदि पेशेवर जातियों के भी अपनी-अपनी मातृदेवियों की मान्यता थी। इन देशी मातृदेवियों के साथ ही पश्चिम से आने वाले यूनानी, शक,कुषाण आदि जातियों की मातृदेवियों का आत्मसातीकरण भारतीय मूर्तिकला में पहली सदी के आसपास ही देखा जा सकता है। इसलिए इन देशी-विदेशी देवियों के अस्त्रों और लक्षणों में एकरूपता देखने को मिलती है। 


अगर हम धार्मिक साहित्य की बात करें तो हमारे पास ऋग्वेद का प्राचीनतम देविसूक्त मौजूद है जिसका विकास बाद में महाकाव्यों और पुराणों में देखने को मिलता है।

रामायण और महाभारत में दुर्गा देवी की लोकप्रियता अपनी पूर्णता को प्राप्त करती है लेकिन सातवीं सदी के लगभग रचे गए मार्कण्डेय पुराण के देवी-महात्म्य के भाग में दुर्गा और राक्षसों का का युद्ध और उनकी कथाएँ जोड़ी गयीं हैं। देवी-महात्म्य की कथाएँ वाकई बाद की रचनाएं हैं लेकिन पहली सदी से ही ऐतिहासिक जगहों से प्राप्त देवी दुर्गा की महिषासुरमर्दिनी रूप ये सबूत देती है कि इन कथाओं का लोकप्रचलित रूप श्रुति रूप(श्रुति साहित्य पर हल्ला करने वाले यहाँ देखें कि पहले भाषा आती है उसका लोकसाहित्य आता है फिर उसका लेखन कार्य होता है अगर वह बहुत प्रसिद्ध हुआ तो) में हमारे समाज में मौजूद था। इसका एक महत्वपूर्ण सबूत ये भी है कि प्राचीन यूनानी लेखक पेरिप्लस की किताब में यह जिक्र है कि दक्षिण में कौमारी नाम के स्थान पर एक अधिष्ठात्री देवी की पूजा होती थी। यह स्थान आज का कन्याकुमारी हो सकता है बाकी पहली सदी से ही मिलने वाली अर्धनारीश्वर की मूर्तियां जो कि शैव और शाक्त धर्म के सम्मिलन का प्रतीक हैं, इनका भी जिक्र पहली सदी के एक यूनानी लेखक ने किया है कि अर्धनारीश्वर देवता की पूजा पश्चिम भारत मे हो रही थी।


महाबलीपुरम में पल्लव वँश के काल की #महिषासुरमर्दिनी मूर्ति देवी दुर्गा का एक सुंदरतम प्रतिमा है।

Credit-Ankit Jaiswal

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