गौतम बुद्ध का अति-महिमामंडन- मल्टी-टैलेंटेड बुद्ध भाग-२

 ।।ओ३म्।।




पाठकों! पिछले भाग में हमने ललितविस्तर के प्रमाणों से देखा कि किस प्रकार गौतम बुद्ध को 'सुपर-इंटेलिजेंट' दिखानो हेतु बौद्धमत में गप्पें मारी गई हैं।अब इस लेख में हम देखेंगे कि मात्र दिमाग के नहीं, बुद्ध शारीरिक कलाओं के भी महारथी थे। बीच में कुछ-कुछ चमत्कारी वर्णन भी होंगे। पाठकगण हमारी समीक्षाओं का आनंद लेते हुये लेख पढ़ें-




∆ आकाशगामी ऋषि बुद्ध के योगबल से रुक गये-




6. उस समय पाँच ( बौद्ध धर्म से ) बाहर के ऋषि, जिन्हें पांच अभिज्ञाएँ प्राप्त थीं, जो ऋद्धिमान् थे, तथा आकाश-मार्ग से जाने का जिनमें सामर्थ्य था, वे दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा की ओर जा रहे थे। वे जब उस वन-खण्ड के ऊपर जाने लगे तब न जा पाए, मानों उन्हें किसी ने रोक लिया हो। उनके


रोंगटे खड़े हो गए और उन्होंने यह गाथा कही-




वयमिह मणिवज्रकूट गिरि मेरुमभ्युद्गतं तिर्यगत्यर्थवस्तारिक,


गज इव सहकारशाखाकुलां शमशाला वृक्षवृन्दां प्रदारित्व निर्धावितानेकशः। उप ( वयमिह मरुणां पुरे चाप्यसक्ता गता


यक्षगन्धर्ववेश्मानि चोध्वं नभे निश्रिता. इम पुन वनखण्डमासाद्य सोदाम भोः कस्य लक्ष्मी निवर्तेति ऋद्धर्बलं ॥इति।।307॥


हम यहाँ पर तिरछे अत्यन्त दूर तक फैले हुए, ऊपर उठे हुए मणियों और हीरों की चोटी वाले सुमेरु पर्वत तक उस प्रकार दौड़ कर गए हैं, जिस प्रकार हाथी आम को शाखाओं से भरे-पूरे वृक्षों के झुरमुटों को तोड़-फोड़ कर दौड़ा करते हैं। हम यहाँ देवताओं के नगर में भी बिना किसी रुकावट के, ऊपर


आकाश में स्थित यक्षों तथा गन्धर्वो के महलों में गए हैं, पर इस वन-कुञ्ज के ऊपर पहुँच कर हमें रुकना पड़ा है, अहो, यह किसकी लक्ष्मी ऋद्धि के बल को रोक रही है।


समीक्षा- 


जो लोग हिंदू देवी-देवताओं के उड़ने पर शंका करते हैं, वो यह देखें कि बौद्ध ग्रंथों के भी ऋषि-मुनि उड़ रहे हैं। बुद्ध जी की सिद्धि से हवा में उड़ते ऋषि रुक गये, यह बौद्धों का कौन-सा विज्ञान है? 






अयमिह वनमाश्रितो ध्यानचिन्तापरो देवगन्धर्वनागेन्द्रयक्षाचितो, भवशतगुणकोटिसंवर्धितस्


तस्य लक्ष्मी निवर्तेति ऋद्धर्बलं ॥इति।।308।।




राजाधिराज-वंश में उत्पन्न, शाक्यों के राजा (शुद्धोदन) के पुत्र, प्रभात के सूर्य के आतप के समान प्रभा वाले, खिले हुए कमल के अन्तर्भाग के रंग जैसी रंगीली कान्ति वाले निर्मल चन्द्र जैसे मुख वाले, लोक में सबसे बड़े विद्वान्, देवताओं, गन्धर्वों तथा नागेन्द्रों से पूजित, शत-शत जन्मों में कोटि-कोटि पुण्य- गुणों से समृद्ध हुए, ये यहाँ इस वन में बैठे ध्यान-चिन्तन में लगे हुए हैं । इन्हीं की लक्ष्मी ऋद्धिबल को रोक रही है ।


8. तब उन्होंने नीचे निहारते हुए तेज और लक्ष्मी से अत्यन्त उज्ज्वल कुमार (सिद्धार्थ) को देखा। उनके मन में यह भाव उठा । यह कौन यहाँ बैठा है । कहीं ये धनाधिपति वैश्रवण न हों। कहीं कामाधिपति मार न हों । ये या तो महानागेन्द्र (शेष) है, या वज्रपाणि महेन्द्र है, या कुष्माण्डाधिपति रुद्र हैं, अथवा महोत्साही कृष्ण है, अथवा देवपुत्र चन्द्र हैं, अथवा सहस्रकिरण सूर्य है, हो न हो ये होने वाले चक्रवर्ती राजा हों।




∆ बुद्ध देवताओं से भी श्रेष्ठ हैं-




उन्होंने उस समय यह गाथा कही-




रूपं वैश्रवणातिरेकवपुषं व्यक्तं कुबेलो ह्ययं


आहो वज्रधरस्य चैव प्रतिमा चन्द्रोऽथ सूर्यो ह्ययं ।


कामानाधिपतिश्च वा प्रतिकृती रुद्रस्य कृष्णस्य वा


श्रीमान् लक्षणचित्रिताङ्गमनघो बुद्धोऽथवा स्यादयं ।।309।।




रूप तो वैश्रवण से अधिक (दिव्य) शरीर का है, स्पष्ट ही ये कुबेर हैं, अथवा ये वज्रधर (इन्द्र) की प्रतिमा है, अथवा ये चन्द्र या सूर्य हैं या काम के श्रेष्ठ अधिपति (मार) हैं । या फिर ये रुद्र या कृष्ण की चित्रित-छवि है, अथवा लक्षणों से विचित्र अंगों वाले ये श्रीधन, निष्पाप, बुद्ध हैं ।



समीक्षा-


यहाँ पर हिंदू देवताओं से बुद्ध की तुलना की जा रही है। नवबौद्ध दिनभर इंद्र,चंद्र,रुद्र आदि को गालियां देते नहीं थकते ,पर उनके ग्रंथों में उनका भी महिमामंडन है।यही नहीं, २२ प्रतिज्ञा वाले बाबा साहब ने भी इसी 'ललितविस्तर' के अनुसार बुद्ध का जीवनचरित्र लिखा था। अब कहा तक नवबौद्ध कहेंगे कि हिंदू देवी-देवताओं की मिलावट ब्राह्मणों ने कर दी?




∆ जम्बूवृक्ष की छाया स्थिर हो गई-




12. राजा शुद्धोदन भी बोधिसत्व को न देख, बोधिसत्त्व के बिना, निरानन्द थे । वे बोले-कुमार नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, कहाँ चले गए ? तब बहुत से लोग दौड़ पड़े कुमार की खोज करते हुए। उस समय एक राज- मन्त्री ने बोधिसत्त्व को जम्बूवृक्ष की छाया में पलथी मारकर ध्यान करते हुए


देखा । सब पेड़ों की छाया पलट चुकी थी पर जम्बूवृक्ष की छाया बोधिसत्त्व के शरीर को न छोड़ रही थी। 




समीक्षा-


वाह वाह! सारे पेड़ों की छाया पलट रही है, पर जामुन के पेड़ की छाया स्थिर है! विचार किया जाये तो सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने से परछाई बनती है।अब सारे पेड़ो की छाया बदल रही है, जामुन को छोड़कर- भली यह किस विज्ञान से संभव है? नवबौद्धों के पास इस गप्प का क्या जवाब है?




∆ पुनः ऋषियों का स्थिर होना-




ध्यानों के विनीतचित्त बोधिसत्व जम्बूवृक्ष की छाया में जाकर तिनके उठा कर, स्वयं आसन बिछा कर, पलथी मार कर, शरीर को सीधा कर, पार शुभ का ध्यान करने लगे।




पञ्चा ऋषि खगपथेन हि गच्छमाना जम्बूय मनि न प्रभोन्ति पराक्रमेतुं ।


 ते " विस्थिता निहतमानमदाश्च भूत्वा सर्व समग्र सहिता समुदीक्षयन्तो ।।326॥


पाँच ऋषि आकाश-मार्ग से जाते हुए (उस) जम्बू वृक्ष की चोटी पर से न लाँघ सके।




( ललितविस्तर,कृषिग्रामपरिवर्त,पृ.२६१-२६७)




समीक्षा-


बार-बार एक ही चमत्कार लिख देने से सच नहीं हो जाता। और पुनः यहाँ बौद्धमत के बाहर के यानी वैदिक ऋषियों को बुद्ध की तुलना में कमजोर दिखाया गया है।


∆ अंगूठे से पकड़कर हाथी को फेंक दिया-






'शिल्पसंदर्शन परिवर्त' में उल्लेख आता है कि एक गोपा (प्रकरणांतर में यशोधरा) नामक स्त्री का स्वयंवर हो रहा था। उसके लिये योग्य वर की तलाश थी और प्रतियोगितायें हो रही थीं।अब उन प्रतियोगिताओं में कैसे बुद्ध को 'मल्टी-टैलेंटेड' साबित किया गया, वो देखिये-




21. तब राजा शुद्धोदन ने कपिलवस्तु नाम के उत्तम महानगर में डुग्गी पिटवाई कि सातवें दिन कुमार अपना शिल्प दिखाएंगे। वहाँ सब शिल्पज्ञों को इकट्ठा हो जाना चाहिए।


22. उस सातवें दिन पूरे पांच सौ शाक्य कुमार इकट्ठे हुए। दण्डपाणि शाक्य की बेटी गोपा नाम को शाक्यकुमारी जयपताका ठहराई गई। जो खाँडा चलाने में, धनुष खींचने में, युद्ध में, कुश्ती में जीतेगा, उसकी यह होगी।


23. उस समय सबसे पहले कुमार देवदत्त नगर से बाहर निकले । बहुत-बड़ा श्वेत रंग का हाथी बोधिसत्त्व के लिए नगर के भीतर लाया जा रहा था । तब देवदत्त कुमार ने ईर्ष्या के कारण शाक्य-कुल के अहंकार तथा अपने पराक्रम के अभिमान में मदमत्त हो कर उस श्रेष्ठ हाथी को अपने बाएँ हाथ


द्वारा सूंड से पकड़ कर दाहिने हाथ के द्वारा चपेटे के एक ही प्रहार से मार डाला।


 26. तदनन्तर रथ पर बैठे ही बैठे कुमार ने एक पैर फैला कर पैर के अंगूठे से उस श्रेष्ठ हाथी को पूंछ से पकड़ कर सात परकोटे और सात खाइयों के पास नगर के बाहर एक कोस की दूरी पर फेंक दिया । जिस स्थान पर वह हाथी गिरा उस स्थान पर बहुत-बड़ा बिल बन गया जो आज कल हस्तिगत कहलाता है। 27. उस समय लाखों देवताओं और मनुष्यों ने लाखों बार हाहाकार किया, किलकारियाँ छोड़ीं, ठहाके मारे और कपड़े हिलाए ।




समीक्षा-


वाह वाह! अंगूठे से पकड़कर हाथी को उड़ा दिया! वो भी १कोस दूर फेंक दिया। बुद्ध तो भीमसेन से भी अधिक बाहुबलि निकले!




∆ ब्रह्मांडभर की लिपियों के ज्ञाता-




(यहाँ) मनुष्यलोक में, देवलोक में, गन्धर्वलोक में, असुरेन्द्रलोक में, (संक्षेप से कहें तो) संपूर्णलोक में जितनी भी लिपियाँ हैं, उनमें ये शुद्धसत्त्व पारंगत हैं । ये मनुष्यों में चन्द्रमा के समान शोभायमान जिन (लिपियों और अक्षरों) को जानते हैं, उन लिपियों और अक्षरों के नाम का भी न तुम्हें पता है और न मुझे। इस विषय में मुझे प्रत्यक्ष है । ये (कुमार सिद्धार्थ ही) जीतेंगे।


.....



समीक्षा-


इस विषय पर पूर्व लेख में लिख चुके हैं। यहाँ पर ब्रह्मांड भर की लिपियों के ज्ञाता बुद्ध जी थे। हाँ, वो बात अलग है कि एक भी लिपि में उन्होंने कोई उपदेश-ग्रंथ नहीं लिखा। यदि लिखा होता तो शायद कंठस्थ की हुई बुद्धवाणी में परस्पर मतभेद होने के कारण बौद्धमत खंडित न होता। न ही महायान,हीनयान,वज्रयान आदि सम्प्रदाय बनते। न ही मूर्तिपूजा, अवतारवाद,अश्लीलता, वाममार्ग आदि का जन्म होता। इतना अच्छा टैलेंट भी बेकार ही गया/




∆ सुपर-कम्प्यूटर से भी तेज-






31. (तदनन्तर) बोधिसत्त्व ने कहा -इस लड़-झगड़ से क्या ? इस समय सब एक होकर मुझसे उद्देश करो-प्रश्न पूछो। मैं निक्षेप करूगा-हिसाब लगाऊँगा। तब पूरे पांच सौ शाक्यकुमार (-137-) एक ध्वनि से बोल कर पहले से अप्रचिलित उद्देश करने लगे, प्रश्न पूछने लगे। बोधिसत्त्व


बिना घबराए निक्षेप करने लगे, हिसाब लगाने लगे। इस प्रकार सब शाक्यकुमार (हिसाब के) अन्त तक न पहुँचते, पर बोधिसत्त्व अन्त तक पहुँच जाते थे।




समीक्षा-


पांच सौ लोगों के गणित के सवालों को तुरंत हल करने वाले बुद्ध तो सुपर-कम्प्यूटर को भी मात करने की कूवत रखते थे।सुनते हैं कि 'शकुंतला देवी' जी पांच सेकेंड में पांच संख्या वाले नंबरोम का गुणा कर देती हैं।आज यदि बुद्ध जिंदा होते, तो शकुंतला देवी भी बुद्ध के आगे नतमस्तक हो जाती और रामानुजम् भी प्रवजित हो जाते। हो सकता है कि गणित के दस-बीस नोबेल पुरस्कार बुद्ध को तो मिल ही जाते।




इसके आगे परमाणु,लंबाई आदि के गणितीय मान दिये हैं, वे ग्रंथ में ही दृष्टव्य हैं। हाँ, एक उल्लेख हम कर देते हैं-




∆ अरबों-खरबों देवता-




सौ कोटि चातुर्महाराजिक देव हैं । सौ कोटि त्रयस्त्रिंश (देव) हैं। सौ कोटि याम (देव) हैं। सौ कोटि तुषित (देव) है । सी कोटि निर्माणरति (देव) हैं । सौ कोटि परनिर्मितवशवर्ती (देव) हैं। सौ कोटि ब्रह्मका यिक (देव) हैं। सौ कोटि ब्रह्मपुरोहित = 1152 = (देव) है । सौ कोटि ब्रह्मपार्षद्य (देव) हैं । सौ कोटि


महाब्रह्मा (देव) हैं । सौ कोटि परीत्ताभ (अर्थात् स्वल्प प्रभावाले देव) हैं। सौ कोटि अप्रमाणाभ (अर्थात् अपरिमित प्रभावाले देव) हैं। सौ कोटि आभास्वर (देव) हैं । सी कोटि परीत्तशुभ (अर्थात् अल्प पुण्यवाले देव) हैं। सौ कोटि अप्रमाणशुभ (अर्थात् अपरिमित-पुण्य-वाले देव) हैं। सौ कोटि शुभकृत्स्न (अर्थात् पूरे पुण्य वाले देव) हैं। सी कोटि अनभ्रक (देव) हैं। सौ कोटि पुण्य-प्रसव (देव) है। सौ कोटि बृहत्फल (देव) हैं। सौ कोटि असं जि-सत्त्व (देव) हैं । सौ


कोटि अबृह ( = अमहान् देव ) हैं। सौ कोटि अतप (देव) हैं। सौ कोटि सुदृश (देव) हैं । सौ कोटि अकनिष्ठ देव हैं । उस (विसाहस्रमहासाहस्रलोकधातु में परमाणुरज) जितने सैकड़ों योजन जितने सहस्रयोजन, जितने कोटि योजन, जितने नयुत योजन, यहाँ तक कि जितने योजन अग्रसारा-गणना से होते हैं वे सब कितने परमाणुरज होते हैं, ऐसा (कोई कहे तो) कहना होगा कि इनकी गिनती संख्याओं द्वारा की जाने वाली गिनती से परे है, इसलिए उन्हें असंख्येय कहा जाता है । इसलिए त्रिसाहस्रमहासाहस्र लोकधातु में जो परमाणुरज हैं वे सर्वथा असंख्येय हैं।


समीक्षा-


नवबौद्ध पूछते हैं कि ३३ कोटि देवताओं का नाम बताओ। शतपथब्राह्मण के अनुसार ३३ प्रकार के देवता होते हैं, फिर आप करोड़ की गिनती कर लें,वे ३३ के अंदर ही आ जाते हैं।पर बौद्ध ग्रंथ ऐसा नहीं बताते। उपरोक्त देवी-देवताओं की गणना अरब-खरब के पार जाती है।आशा है कि नवबौद्ध हमें उनकी सूची उपलब्ध करायेंगे।




∆ गौतम बुद्ध- केलकुलेटर से भी तेज-






त्रिसाहनि रजाश्च यन्तका तृष वन ओषधियो जलस्य बिन्दून् ।


न्यसेय एकिनेषो किं पुनि विस्मयु पञ्चभिः शतेभिः ॥362।।




त्रिसाहस्र (-महासाहस्र-लोक धातु) में, जितने (परमाणुओं के) रज हैं, तिनके हैं, वन हैं, औषधियाँ हैं, जल के बूंद हैं, उनको ये (बोधिसत्त्व) एक हुँकार में अर्थात् हुँ को एक-बार कहने में जितना समय लगता है उतने समय में गिन सकते हैं, फिर पांच सौ (हुँ-के क्षणों) में (गिन डाले तो) अचरज ही क्या ?




इह गृहगत युष्मे पश्यथा सत्त्वसारं अपि च दशसु दिक्षु गच्छतेऽयं क्षणेन ।


अपरिमितजिनानां पूजनामेष कुर्वन् मणिकनक विचित्रैर्लोकधातुष्वनन्ता ।।365।।


यहाँ पर तुम-सब (इन) इन श्रेष्ठ (बोधि) सत्त्व को घर में विराजमान देखते हो। फिर भी ये क्षण-क्षण में दसों दिशाओं में (स्थित) अनन्त लोक-धातुओं में (वर्तमान) अपरिमित बुद्धों की विचित्र मणियों एवं सुवर्णों से पूजा करते हुए जाते रहते है।




समीक्षा-


दुनिया की कोई भी गणनात्मक मशीन बुद्ध की बराबरी नहीं कर सकती। इस गप्प पर नवबौद्धों का क्या कहना है?








∆ 'वर्ल्ड हेवीवेट चैम्पियन'- बुद्ध भगवान्-






43. तब शाक्यों ने कहा । युद्धविषय में जान लेना चाहिए कि कुमार विशिष्ट हैं (या नहीं)? उस (अवसर) पर बोधिसत्त्व एक ओर खड़े हो गए और वे पूरे पांच सौ शाक्यकुमार एक साथ युद्ध करने लगे। इस प्रकार (भी जब बोधिसत्त्व ही विशिष्ट सिद्ध हुए तब) बत्तीस शाक्यकुमार मल्लयुद्ध ( = कुश्ती) के लिए खड़े हुए। उस समय नन्द और आनन्द कुश्ती के लिए बोधिसत्त्व के सम्मुख आ डटे। उन्हें बोधिसत्त्व ने ज्यों ही हाथ से छुआ त्यों ही वे बोधिसत्त्व के तेज और बल को न सह पा कर धरती पर गिर पड़े । उसके बाद गर्वीले, अभिमानी, बलवान् एवं अकड़वाले,15 बल के अभिमान से तथा शाक्यकुल के अभिमान से अकड़े हुए, बोधिसत्त्व के साथ स्पर्धा करते हुए कुमार देवदत्त समूचे रंगमण्डल (- अखाड़े) की प्रदक्षिणा कर खिलाड़ी-पना दिखाते हुए बोधिसत्त्व पर झपटे। इस पर बोधिसत्त्व बिना घबराए-बिना झटपटाहट किये ही कुमार देवदत्त को लोला के साथ अपने दाहिने हाथ से पकड़ कर तीन बार आकाश में घुमा कर अभिमान मिटाने के लिए अहिंसा की भावना तथा मैत्री के चित्त से धरती पर डाल दिया, पर शरीर में चोट न लगी।


44. तदनन्तर बोधिसत्त्व ने भी कहा । इस लड़-झगड़ से क्या ? सब लोग एक होकर अब कुश्ती लड़ने आ जाओ। (-153-) तब वे सब हर्षित होकर बोधिसत्त्व पर झपटे । बोधिसत्त्व ने छू भर दिया। वे बोधिसत्त्व की श्री, तेज, शरीर-वल तथा दृढ़ता को न सह पा कर छूने के साथ ही साथ धरती पर गिर पड़े । लाखों देवताओं और मनुष्यों ने लाखों हा-हाकार किए, किलकारियां मारी, ठहाके छोड़े। और आकाश में स्थित देवपुत्रों ने पुष्पों की महावर्षा कर एक स्थर से ये गाथाएं कहीं-






समीक्षा-


बहुत सुंदर! अब तो महिमामंडन और गप्पें मारने में हद पार कर दी है! बुद्ध को छूकर ही सब गिर पड़े, ५०० लोग बुद्ध को छूते ही धरती पर गिर पड़े- ये केवल बुद्ध को महान् दिखाने हेतु रचा गया है। जिन लोगों को अंगद के पाँव पर आपत्ति है, वो यहाँ क्या बोलेंगे? 


निश्चित ही बुद्ध आज होते तो डबलूडबलूई में उनको 'वर्ल्ड हेवीवेट युनिवर्सल चैम्पियन' बना दिया जाता।


यही नहीं, ओलम्पिक में हर बार भारत को गोल्ड मिलना भी तय था! पर हा शोक! ये टैलेंट बुद्ध के साथ ही मिट गया!






∆ भगवान् शिव की निंदा-




यावन्त सत्त्वनयुता दशसू दिशासू ते दुष्टमल महनग्नसमा भवेयुः । एकक्षणेन निपतेयु नरर्षभस्य संस्पृष्टमात्र निपतेयु क्षितीतलेस्मि ॥3671


दसों दिशाओं में जितने खर्व-खर्व प्राणी है, वे यदि महानग्न (महाबली रुद्र) के समान प्रतिपक्षी मल्ल (पहलवान) हों तो भी आक्रमण कर एक क्षण में श्रेष्ठ पुरुष के छूने भर से ही भूतल पर गिर पड़ेंगे ।






समीक्षा-


 यहाँ पर देवताओं द्वारा ही महादेव शिव जी की निंदा की जा रही है।क्या खूब! रुद्र भगवान् को 'महानग्न' यानी 'महानंगा' कहा गया है। पुराणों के अनुसार शिव जी वाघांबर,धोती आदि पहनते हैं तो वे महानग्न कैसे हुये? और फिर शिव जैसे खरबों पहलवान बुद्ध को छूकर ही ढेर हो जायेंगे- यह कहना शिव जी की निंदा नहीं? इसी तरह हिंदू देवी-देवताओं पर कीचड़ उछालकर बौद्धों ने अपने मत की ब्रांडिंग की थी और आज नवबौद्ध वही कर रहे हैं।




∆ कृष्ण शब्द का भ्रष्ट अर्थ-




एषो द्रुमेन्द्रप्रवरे महदुष्टमल्लं मारं ससैन्य सबलं सहयं ध्वजाने।


मैत्रीबलेन विनिहत्य हि कृष्णबन्धुं यावत् पृसिष्यति अनुत्तर बोधि सान्तं ॥369॥




ये श्रेष्ठ वृक्षों के राजा (पीपल के वृक्ष) के नीचे महान् प्रतिपक्षी मल्ल, कृष्ण- बन्धु (= पाप के भाई) आगे-आगे ध्वजा से युक्त सेना-बल समेत, मार को जीत कर अनुत्तर एवं शान्त बोधि को स्पर्श करेंगे । इस प्रकार बोधिसत्त्व ही विशिष्ट सिद्ध हुए ।


45. इसके अनन्तर दण्डपाणि ने शाक्यकुमारों से यह कहा । यह जान लिया और देख लिया। अब बाण फेंकने (की कला) का प्रदर्शन करो। 


समीक्षा-


कृष्णबंधु का अर्थ 'पाप के भाई' माना गया है। इसी तरह सुत्तपिटक कृष्ण का अर्थ 'पिशाच' किया गया है। 






∆ बुद्ध की अद्भुत तीरंदाजी और वराह देवता की निंदा-




तब वह धनुष दण्डपाणि शाक्य के पास लाया गया। तदनन्तर दण्डपाणि शाक्य अपने कायबल का पूरा सामर्थ्य लगा कर उस धनुष को चढ़ाने लगे, पर न चढ़ा सके । यों (क्रम से वह धनुष) बोधिसत्त्व के पास लाया गया । उसे ले कर आसन से बिना उठे ही, आधी पलथी मार, बाएं हाथ से पकड़ कर, बोधिसत्त्व ने दाहिने हाथ की एक उँगलो के अगले पोर से चढ़ा दिया । चढ़ाए जाते हुए धनुष के शब्द से सम्पूर्ण कपिलवस्तु महानगर में विज्ञापन हो गया । तब नागरिक लोग विह्वल हो एक-दूसरे से पूछने लगे, यह ऐसा शब्द किसका है। और लोगों ने कहा । कुमार सिद्धार्थ ने अपने पितामह का धनुष चढ़ाया है। उसका यह शब्द है । तब लाखों देवताओं तथा मनुष्यों ने लाखों बार हाहाकार किया, किलकारियाँ मारी, ठहाके छोड़े । और आकाश में स्थित देवपुत्रों ने राजा शुद्धोदन से तथा लोगों की उस बड़ी भीड़ से गाथा-द्वारा कहा-




यथ पूरित एष धनुमुनिना


न च उत्थितु आसनि नो च भुमी ।


निःसंशयु पूर्णमभिप्रायु मुनिर्


लघु भेष्यति जित्व च मारचमू ।।370।।


जिस प्रकार (इन) मुनि ने इस धनुष को बिना आसन से तथा बिना भूमि से उठे ही पूर्ण किया है, (उसी प्रकार) ये निःसन्देह (अपने) मनोरथ को पूर्ण कर शीघ्र ही मारसेना को जीत कर बुद्ध होंगे ।


47. हे भिक्षुओं, इस प्रकार बोधिसत्त्व ने बाण लेकर धनुष पर चढ़ा कर वैसे बल-सामर्थ्य से उस बाण को फेंका कि वह बाण जो-जो जहाँ-जहाँ आनन्द की, देवदत्त की,-सुन्दरनन्द की, यहाँ तक कि-दण्डपाणि की मेरी थी, सब को भेद कर दस कोस दूरी पर स्थित अपनी लोहे की बनी भेरी तथा सात ताल ऊँची यन्त्र-युक्त वराह-प्रतिमा को (भी) भेद कर भूतल में समा कर (ऐसा) अदृश्य हुआ कि उसकी झलक भी न दीख पड़ी । जिस स्थान पर वह बाण भूतल भेद कर भीतर घुस गया था उस स्थान पर कुआँ हो गया,जो शरकूप कहलाता है। उस (अवसर) पर लाखों देवताओं और मनुष्यों ने लाखों बार ही-हीकार किया, किलकारियां मारी, ठहाके छोड़े। समूचे शाक्यगण को विस्मय हुआ, आश्चर्य लगा। अहो, आश्चर्य है कि इन्होंने योग्य (विद्या-सिद्धि) न की (फिर भी इनकी) यह ऐसी शिल्प में चतुरता ।




( ललितविस्तर, शिल्पसंदर्शनपरिवर्त,पृ.२८३-२९५)






समीक्षा-


१० कोस अधिक से अधिक ३२ किलोमीटर होंगे। बुद्ध बैठे-बैठे धनुष उठाकर तीर चलाते हैं,वो ३२ किलोमीटर दूर जाकर लोहे की भेरी और वराह प्रतिमा को चीरता हुआ धरती में घुसता है और वहाँ एक कुआँ बन जाता है। वाह! अंतर्राष्ट्रीय तीरंदाजी के रिकॉर्ड की धज्जियां उड़ा दी गई है! बुद्ध आज होते तो तीरंदाजी में वर्ल्ड चैम्पियन होते।


यहाँ पर वराह-प्रतिमा से प्रतीत होता है कि विष्णु जी के पौराणिक वराहावतार देवता को नीचा दिखाया जा रहा है।




उपसंहार- इस प्रकार हमने देखा कि बौद्ध ग्रंथों में गौतम बुद्ध के महिमामंडन में विज्ञान,बुद्धि,तर्क आदि हर तरह की सीमा पार करके गपोड़े गढ़ें गये हैं। खुद को विज्ञानवादी और हिंदुओं को अवैज्ञानिक कहने वाले इनका कोई समाधान दे सकते हैं,हमें नहीं लगता।इसलिये नवबौद्धों को पहले अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए।






।।धन्यवाद।।



















Credits: nastikwad khandan blogspot 


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