भगवान वासुदेव (श्री कृष्ण) के प्राचीन मंदिरों के पुरातात्विक प्रमाण!!!

 अनेकों नवबौद्ध यह आरोप लगाते हैं कि बुद्ध के मंदिरों से प्राचीन हिंदुओं के कोई पूज्य स्थल नहीं थे। कुछ तो इतना कहते हैं कि ईसापूर्व हिंदुओं का कोई भी पूज्य स्थल नहीं था। यद्यपि इस विषय पर हम पूर्व में ही लिख आये हैं किंतु यहां हम बलराम वासुदेव से सम्बंधित पूज्य स्थल (मंदिरों) के विषय में इस पोस्ट के अंतर्गत चर्चा करेगें। इस पोस्ट में हम आपको सप्रमाण सिद्ध करेगें कि वासुदेव बलराम के मंदिरों का निर्माण ईस्वी पूर्व भी होता था। इससे हमें श्री कृष्ण के ईसा पूर्व पूजा के भी प्रमाण प्राप्त होगें। 


तो आइये देखते हैं, श्री कृष्ण व बलराम के प्राचीन पूज्य स्थल - 


(1) विदिशा के हेलोडोरस स्तम्भ के समीप प्राचीन भागवत (वासुदेव) चैत्य (मंदिर) -


विदिशा में ईसापूर्व 200 का एक अभिलेख प्राप्त हुआ था। यह अभिलेख एक गरुडध्वज नामक स्तम्भ पर था। इस अभिलेख के अनुसार यह गरुडध्वज स्तम्भ भगवान वासुदेव के लिए समर्पित था। 


- Puratattva (Bulletin of the indian archaeological society), no. 8, plate no. IX


इस अभिलेख का पाठ इस प्रकार है -



- Journal of indian history and culture, Issue - 25, (sep. 2019), Page no. 15


 इस अभिलेख के दूसरे भाग पर प्राकृत भाषा में एक वाक्य है। हेमचंद्र रायचौधुरी के अनुसार यह वाक्य महाभारत के स्त्री पर्व (7.23-25) का सारांश है। 


अभिलेख के मूलपाठ में "दम, चाग, अ प्रमाद" नामक तीन पदों को अमृत व स्वर्ग की प्राप्ति का साधन बताया है। 


- Journal And Proceedings Of The Asiatic Society Of Bengal, new series, vol. xviii (1922), Page no. 269


महाभारत के स्त्रीपर्व के श्लोक में भी दम:, त्याग और अप्रमाद को ब्रह्मलोक (अमृत व स्वर्गलोक) की प्राप्ति का साधन बताया है। 


महाभारत से मूल श्लोक यहां देखें - 


- महाभारतम् (नीलकण्ठकृतया भारतभावदीपाख्यया टीकया समेतम्), स्त्रीपर्व 11, अध्याय 7, श्लोक 23 


200 ईसापूर्व के इस अभिलेख की पंक्तियों की महाभारत के श्लोक से आश्चर्यजनक समानता इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी महाभारत की लोकप्रियता इतनी थी कि उससे यवन राजदूत हेलोडोरस भी प्राभावित था। यह प्रमाण महाभारत की प्राचीनता व लोकप्रियता को भी सिद्ध करता है। 


इस स्तम्भ के समीप ही अत्यंत प्राचीन मंदिर के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों के आधार पर John Irwin ने कुछ निष्कर्ष इस प्रकार निकाले थे - 


- Puratattva (Bulletin of the indian archaeological society), no. 8, Page no. 170


इस नष्ट मंदिर के अवशेषों के अनुसार इस मंदिर की आधारशिला 400 - 300 ईसापूर्व प्राचीन है तथा यह मंदिर एकबार बाढ के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था। पुनः 200 ईसापूर्व इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। मंदिर परिसर से हेलोडोरस का स्तम्भ तथा अभिलेख इस बात का प्रमाण है कि यह मंदिर भगवान वासुदेव को समर्पित था। इस मंदिर का कम्प्यूटर के द्वारा बनाया गया अनुमानित आकार इस प्रकार   था - 


- प्राचीन एवं पूर्व मध्यकालीन भारत का इतिहास, पाषाण काल से 12 वीं शताब्दी तक, पेज नं. 480, चित्र सं. 8.2 


इससे यह बात सिद्ध होती है कि लगभग 300 ईसापूर्व अर्थात् मौर्य काल में भी कृष्ण के मंदिर बनाये जाते थे। तथा इससे यह भी सिद्ध होता है कि गुम्बदाकार मंदिर संरचना का निर्माण हिंदुओं में बौद्धों से भी पूर्व होता था। 


2) अंवलेश्वर का विष्णु कीर्तिस्तंभ - 


यह स्तम्भ राजस्थान एवं मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित अंवलेश्वर नामक गांव से प्राप्त हुआ था। इस स्तम्भ पर 200 ईसापूर्व प्राचीन ब्राह्मी के लेख के अनुसार भागवत मतानुयायी अर्थात् वासुदेव भक्त तापुसेन राजा ने सेल भुज का निर्माण करवाया था।


- धर्मायण, अंक 101, पेज न. 59


इस स्तम्भ पर अंकित लेख का अनुवाद श्रीकृष्ण जुगनू जी ने इस प्रकार किया है - 


- धर्मायण, अंक 101, पेज नं. 59


इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि अंवलेश्वर में 200 ईसापूर्व भी कृष्ण पूजन प्रचलित था। यहां राजा ने स्वयं की उपाधि भागवत दी है, ऐसा ही अन्य कुछ अभिलेखों में भी मिलता है। यहां भागवत से तात्पर्य है कि भागवत भक्त अर्थात् कृष्ण भक्त। इस प्रकार की उपाधि अन्य ईष्टों के भक्त भी धारण करते हैं जैसे - शिव भक्त की उपाधि परम माहेश्वर, देवी भक्त की उपाधि परम शाक्त, बुद्ध भक्त की शाक्य। 


3) घोसुण्डी का अभिलेख एवं प्राचीन मंदिर - 


यह स्थान राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में स्थित है। इस स्थान से संस्कृत का लगभग 200 ईसापूर्व प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुआ था। 


- धर्मायण, अंक 101, पेज न. 58


बाद में अभिलेख के अन्य पाठ भी प्राप्त हुए थे। उन सबके आधार पर सम्पूर्ण अभिलेख का पाठ तैयार हुआ तथा अनुवाद किया गया था। यह अभिलेख एक प्राचीन गुम्बदाकार मंदिर अवशेषों के समीप स्थित था। अभिलेख का हिंदी अनुवाद श्रीकृष्ण जुगनू जी ने इस प्रकार प्रकाशित किया है - 


- राजस्थान के प्राचीन अभिलेख, पृष्ठ क्रमांक 21


इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि भागवत मतानुयायी राजा सर्वतात ने बलराम और वासुदेव की पूजा शिला, प्राकार और नारायण नामक वाटिका का निर्माण करवाया था। राजा सर्वतात के अश्वमेध यज्ञ का प्रमाण भी इस अभिलेख से मिलता है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि अभिलेख के समीप जो मंदिर अवशेष हैं, वे भगवान वासुदेव और बलराम के मंदिर के अवशेष थे जिसके लिए राजा सर्वतात ने पूजा शिला और प्राकार तथा वाटिका का निर्माण करवाया था। 


उन मंदिर अवशेषों को भंडारकर जी ने लगभग तीसरी शताब्दी ईसापूर्व माना है। 

- Puratattva (Bulletin of the indian archaeological society), no. 8, page no. 176, (comments by M. D. Khare) 


इस प्रमाण से भी 300 - 200 ईसापूर्व बलराम वासुदेव के मंदिरों की प्राचीनता सिद्ध होती है। 


4) द्वादिशादित्य टीला (मदन मोहन मंदिर) से प्राप्त इष्टकाभिलेख - 

ब्रज क्षेत्र प्राचीन काल से लेकर आज तक श्री कृष्ण की भक्ति के लिए प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र की प्राचीनता यहां के द्वादिशादित्य टीले से प्राप्त ईष्टिका अभिलेखों से चलती है। इन ईष्टिकाओं का काल ईष्टिकाओं की संरचना एवं आकार के आधार पर मौर्यकालीन सिद्ध होता है। इनमें से कुछ ईष्टिकाओं पर ब्राह्मी लिपि में लेख भी प्राप्त होते हैं। एक ईष्टिका पर प्राप्त लेख का पाठ निम्नानुसार है - 


- ब्रज के शिलालेख, भाग - 1 (वृंदावन), पृष्ठ क्रमांक 1


इस अभिलेख के अनुसार भागवत मतानुयायी ननट के द्वारा यह स्थल बनवाया गया था। 


इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि ब्रज क्षेत्र में मौर्यकाल के दौरान भी कृष्ण से सम्बंधित संरचनाओं का निर्माण होता था तथा भागवत की उपाधि प्रचलित थी। 

इससे हमें यह भी ज्ञात होता है कि द्वादिशादित्य टीले पर विद्यमान मदनमोहन मंदिर से पूर्व भी यहां भगवान कृष्ण के पूज्य स्थल विद्यमान थे। इसी स्थान से शोडाष का भी भगवान वासुदेव को समर्पित एक खंडित लेख प्राप्त होता है। जिसको हमने इसी ब्लाग के अन्य लेख में दिया है। 


अत: निष्कर्ष निकलता है कि कृष्ण की पूजा ईसापूर्व ही नहीं वरन् मौर्यकाल एवं मौर्य पूर्व भी प्रचलित थी। साथ ही हम कह सकते हैं कि गुम्बदाकार मंदिर रचना हिंदुओं ने बौद्धों से कापी नहीं की है। 


संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तकें - 

1) Puratattva (Bulletin of the indian archaeological society), no. 8

2) Journal of indian history and culture, Issue - 25, (sep. 2019)

3) Journal And Proceedings Of The Asiatic Society Of Bengal, new series, vol. xviii (1922)

4) महाभारतम् (नीलकण्ठकृतया भारतभावदीपाख्यया टीकया समेतम्) - प्रकाशन : सदाशिववीथ्यां चित्रशालाख्ये मुद्रणालये (शाक: 1850) 

5) प्राचीन एवं पूर्व मध्यकालीन भारत का इतिहास, पाषाण काल से 12 वीं शताब्दी तक - उपिन्दर सिंह 

6) धर्मायण, अंक 101

7) राजस्थान के प्राचीन अभिलेख - डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू 

8) ब्रज के शिलालेख, भाग - 1 (वृंदावन) - डॉ. राजेश शर्मा



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