मत्तविलासप्रहसनम् और बौद्धमत

 

राहुल सांस्कृत्यायन ने अपनी पुस्तक बुद्धचर्या में बौद्ध मत का पतन बौद्ध भिक्षुओं के मद्यपान, स्त्रीगमन, मांसाहार आदि नैतिक पतनता को बताया है। इसकी पुष्टि हमें राजा महेंद्रवर्मन के मत्तविलासप्रहसन नामक नाटक से भी होती है। इस लघु नाटक में कपालिक, बौद्ध, जैन, पाशुपत आदि मतों का आडम्बर कटाक्षीय शैली में दर्शाया गया है। जिससे ज्ञात होता है कि मतमतान्तरों के पाखंडों से संसार किस प्रकार जकडा हुआ है।

नाटक से बौद्ध भिक्षुओं के नैतिक पतन और पाखंड का भी ज्ञान होता है, जिसकी चर्चा हम इस आलेख में करने जा रहे हैं।

नाटक का अंत वेदों और अग्निहोत्र की महिमा के साथ होता है, जिससे ज्ञात होता है कि राजा विशुद्ध वेदानुयायी था।

अंत करते हुए लिखा है -

शश्वद् भूत्यै प्रजानां वहतु विधिहुतामाहुति जातवेदा।

वेदान् विप्रा भजन्तां सुरभिदुहितरों भूरिदोहा भवन्तु।

उद्युक्तः स्वेषु धर्मेष्वयमपि विगतव्यापदाचन्द्रतारं

राजन्वानस्तु शक्तिप्रशमितरिपुर्णा शत्रुमल्लेन लोकः।। 23।।

अग्नि! प्रजदाओं के ऐश्वर्य से हवन की गई आहुति को निरन्तर धारण करें अर्थात् राज्य में प्रजाजन निरंतर हवन करें। विप्र लोग निरन्तर वेदों का स्वाध्याय करें। गायें निरन्तर दूध देने वाली होवें। सभी अपने - अपने धर्मों में निरत होकर आपत्ति रहित हो, ये देश शत्रु नाशक धर्मपालित राजा से सदा सुशोभित होवे।


बौद्ध मत वैदिक धर्म की नकल -

कपाली के मुख से बौद्ध मत की नकल दर्शाते हुए लिखा है -

"वेदान्तेभ्यो गृहोत्वार्थाम् यो महाभारतादपि।

विप्रार्णां मिषतामेव कृतवान् कोशसंचयम्।।12।।"

जिसने वेदान्तादिशास्त्रों और महाभारत से अर्थों को ग्रहण कर, ब्राह्मणों के देखते - देखते ही अपने कोश को भर लिया है अर्थात् जिस तरह कोई व्यक्ति डाका डालकर किसी के धन को ग्रहण करके मालदार बन जाता है उसी प्रकार बुद्ध ने भी दूसरों की शब्दराशि से ग्रंथराशि इकट्ठा कर ली।

बौद्ध भिक्षुओं का नैतिक पतन -

बोद्ध भिक्षुक बहुत ही निकृष्टता की सीमा पर जा पहुंचे थे, नाटक में नागसेन नामक एक बौद्ध भिक्षुक की सोच दर्शाई है, जो कि स्त्रीं मद्य मांस की जुगाड में रहता है तथा सोचता है कि बुद्ध ने पिटक ग्रंथों में इनका उपदेश अवश्य ही किया होगा लेकिन वृद्ध भिक्षुओं ने वह सभी अंश निकाल दिये या असली पिटक जिनमें ये सब है, उसे मैं प्राप्त करू।

इससे ये भी पता चलता है कि बौद्धों में वाममार्ग बौैद्ध भिक्षुओं के कारण ही आया था, न कि हिन्दुओं से।

नाटक का मूल वर्णन इस प्रकार है -


शाक्यभिक्षु - अहो उवास अस्स धणदाससेट्ठिणो सब्बावास महादाणमहिमाणो, जहि मए अभिमदवण्णगन्धरसो मच्छमंसप्यआरबहुलो अअं पिण्डवादो समासादिदो। ................. सुरावाणविहाणं च ण दिट्ठं।


इस नाटक में ये भलिभांति प्रकार दर्शाया है कि बौद्ध और कापालिक दोनों एक दूसरे को नीचा दर्शाते हैं लेकिन पाखंड में दोनों एक - दूसरे से कम नहीं हैं।

संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तक - 

1) मत्तविलासप्रहसन - व्याख्याकार श्री कपिलदेवगिरिः


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