गौतम बुद्ध का अति-महिमामंडन- सुपर-इंटेलिजेंट बुद्ध,भाग-१

 ( हिंदू देवी-देवताओं को बुद्ध से बौना दिखाना)

।।ओ३म्।।


पाठकों! नवबौद्ध हमेशा कहते हैं कि उनके मत में कोई पाखंड नहीं है।कई जन जैसा कि डॉ अंबेडकर, सुरेंद्रकुमार अज्ञात, राकेश नाथ आदि कृष्ण जी के गीता के 'आत्मपरक' श्लोकों के आधार पर कृष्ण जी को आत्मप्रचारक कहते हैं।

परंतु गौतम बुद्ध की हर लिखित पुरानी जीवनी में उनको बहुत बड़ा महात्मा,महान् विद्वान, महान् चमत्कारी यहाँ तक के ईश्वर का भी दादागुरु बना दिया है! इस विषय पर और लेख आयेंगे, फिलहाल इस लेख में चर्चा करेंगे कि कैसे हिंदू देवी-देवताओं की निंदा करते हुये बुद्ध का महिमामंडन किया गया।


बुद्ध की जीवनी,जिसके अनुसार डॉ अंबेडकर 'बुद्ध और उनका धम्म' लिखते हैं, उस ललितविस्तर में लिखा है-


∆ बुद्ध से देवता भी काँपते हैं-


जातस्य मह्यमिह कम्पित त्रिंसहस्रं शक्रश्च ब्रह्म असुराश्च महोरगाश्च ।

चन्द्रश्च सूर्य तथ वैश्रवण कुमारो मूर्ना क्रमेषु निपतित्व नमस्ययन्ति ।।287।।


यहाँ मेरे जन्मते त्रिसाहस्र-लोकधातु काँप उठे थे। इन्द्र, ब्रह्मा, असुरगण,महानाग-गण, चन्द्र, सूर्य, कुबेर, तथा कार्तिकेय ने चरणों में गिर कर शिर से (मुझे) नमस्कार किया था।


समीक्षा- यहाँ तो पहले ही बॉल पर छक्का जड़ते हुये बुद्ध को इंद्र,ब्रह्मा आदि से भी नमस्कार करवा दिया! ऐसा उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में शिव आदि के लिये उन-उनके मतके पुराणों में आता है। जिनके बाबा साहब २२ कसमों में देवी-देवताओं को नहीं मानते, वे भला इसका क्या जवाब देंगे?


∆ बुद्ध से बड़ा कोई देवता नहीं-


कतमो ऽन्यु देव मम उत्तरियो विशिष्टो यस्मिन् मम प्रणयसे त्वमिहाद्य अम्ब ।

देवातिदेव अह उत्तमु सर्वदेवैः देवो न मेऽस्ति सदृशः कुत उत्तरं वा ॥288||

हे अम्ब, कौन-सा और देवता मुझसे बढ़ा-चढ़ा श्रेष्ठ है, जिसके यहाँ तुम आज मुझे ले जा रही हो। मैं सब देवताओं में उत्तम, देवताओं का भी श्रेष्ठ देवता हूँ। देवता मेरी बराबरी का भी नहीं है, फिर मुझसे बढ़ कर हो ही कैसे सकता है।


समीक्षा- कृष्ण, देवी आदि की आत्मस्तुति को 'आत्मप्रचार' कहने वालों का इस पर क्या कहना है? बुद्ध सब देवताओं से उत्तम खुद को बता रहे हैं! पर इनके अनुसार तो देवता ही नहीं होते। क्यों नवबौद्धों! यह भी ब्राह्मण ने मिला दिया या तुम्हारे बुद्ध सचमुच एक आत्मप्रचारक थे?


∆ चमत्कार बुद्ध-


लोकानुवर्तन प्रती इति अम्ब यास्ये

दृष्ट्वा विकुर्वित ममा जनता उदग्राः ।

अधिमात्रु गौरव करिष्यति चित्रकारः

ज्ञास्यन्ति देवमनुजा स्वय देवदेवः ।।289।।

हे अम्ब, लोक में जो चलन है उसे रखने के लिए जाऊँगा। मेरा विशेष रूप से किया गया (चमत्कारी कृत्य) देख कर आनन्दित लोग अत्यन्त मान एवं पूजा करेंगे । देवता और मनुष्य जान लेंगे कि ये वही देवों के देवता है।


∆ हिंदू देवी-देवताओं का अपमान- बुद्ध के चरणों में देवता


6. हे भिक्षुओं, राजा शुद्धोदन इस प्रकार महान् राजसमूह के साथ, महती राज-समृद्धि तथा महान् राजप्रताप के सहित कुमार को लेकर देवकुल में प्रविष्ट हुए । (प्रविष्ट होने के साथ-साथ (जब) उस देवकुल में बोधिसत्त्व ने दोनों चरणों में से दाहिने चरण का तलवा रखा, तब वे अचे (-120--) तन देवप्रतिमाएँ—यथा-शिव, स्कन्द, नारायण, कुबेर, चन्द्र, सूर्य, वैश्रवण, शक्र, ब्रह्मा तथा लोकपालों की प्रतिमाएं-सबको सब अपने-अपने स्थानों से उठ कर बोधिसत्त्व के चरण-तलों में गिर पड़ी । उस समय लक्ष-लक्ष देवता तथा मनुष्य मुख से ही-ही करते, किल-कारियाँ मारते, लक्ष-लक्ष बार कलकलनाद

करते थे, वस्त्र हिलाते थे । कपिलवस्तु महानगर छह प्रकार से काँप उठा था। दिव्य-पुष्पों की वर्षा हुई थी। बिना बजाए ही लक्ष-लक्ष बाजे बजने लगे थे।


( देखिये,ललितविस्तर, देवकुलोपनयनपरिवर्त,प.२३६-२३७)


समीक्षा- यहाँ पर हिंदू देवी-देवताओं को पूरी तरह नीचा दिखाया गया है। सारी देवमूर्तियाँ हवा में उछलकर बुद्ध के पैरों पर गिर पड़ी। क्या मूर्तियां धातु की थीं और बुद्ध के चरणों में कौन-सा चुंबक लगा था? यहाँ पर ललितविस्तर के लेखक ने बुद्ध को बड़ा दिखाने के चक्कर में हिंदू देवी-देवताओं का घोर अपमान किया है। मूर्तियों व चित्रों पर जूता मारना,थूकना,उनको तोड़ना,जूते की माला पहनाना आदि कुकृत्य नवबौद्ध नास्तिकों और पेरियारवादियों ने इसी ग्रंथ से ही सीखे होंगे ।


∆ 'सुपर-इंटेलिजेंट' बुद्ध बाबा-


ललितविस्तर में बुद्ध को जन्मजात चलना,बोलना आदि के साथ-साथ एक और असंभव गप्प मार रखी है। आगे के अध्यायों में गौतम बुद्ध को पैदाइशी ही लिपिज्ञान,युद्धकला,शस्त्र-संचालन,घुड़सवारी आदि का ज्ञान था, ऐसा उल्लेख है। पाठक पढ़ते जायें और हमारी समीक्षा का आनंद लें-


(शुभाङ्गदेवपुत्रगाथाएँ । वसन्ततिलका छन्द)


शास्त्राणि यानि प्रचरन्ति मनुष्यलोके

संख्या लिपिश्च गणनापि च धातुतन्त्र ।

ये शिल्पयोग पृथु लौकिक अप्रमेयाः

तेष्वेषु शिक्षितु पुरा बहुकल्पकोट्यः ।।297॥

संख्या, लिपि, गणना, धातुतन्त्र (= अण्ड-पिण्डविज्ञान) आदि जो शास्त्र मनुष्य-लोक में प्रचलित है तथा जो बहुत से अप्रमेय शिल्पयोग लोकानुबन्धी हैं, उनमें बहुत कल्प-कोटियों तक इन (बोधिसत्त्व) ने शिक्षा पाई है।


किं तू जनस्य अनुवर्तनतां करोति

लिपिशालमागतु सुशिक्षितः शिष्यणार्थ ।

परिपाचनार्थ बहु दारक अग्रयाने

अन्यांश्च सत्त्वनयुतानमृते विनेतु ।।298।।


किं तु (ये) लोकानुवर्तन अर्थात् लोक के बँधे-बंधाए आचार का पालन कर रहे हैं (और इसलिए) सम्यक् शिक्षित होते हुए (भी) बहुत से बालकों को अग्रयान ( = बोधिसत्त्वयान) में पक्का करने के लिए, एवं दूसरे खर्व-खर्व प्राणियों को अमृत (= मोक्ष) में विनीत करने के लिए, लिपिशाला में सीखने के

लिए आए हैं।


समीक्षा- एक ही जन्म में बिना शिक्षा के इनको इतनी लिपियों का ज्ञान था! पुराणों में वेदवती और शुकदेव का माँ के पेट से ही वेद पढ़ने का उल्लेख आता है। बुद्ध जी ने तो उनको भी मात दी है!


(-125-) लोकोत्तरेषु चतुसत्यपथे विधिज्ञो

हेतु प्रतीत्य कुशलो यथ सम्भवन्ति ।

यथा चा निरोध क्षयु संस्थितु सीतिभावः

तस्मिन् विधिज्ञ किमथो लिपिशास्त्रमात्रे ॥299॥

(ये) चतुरार्यसत्य के लोकोत्तर मार्ग की विधि जानते हैं । (धर्म) जैसे हेतु के प्रत्यय से उत्पन्न हैं, (उनके ज्ञान में ये) कुशल हैं। और जिस प्रकार (उन धर्मों का) निरोध, क्षय, संस्थिति ( = मरण) तथा शीतीभाव होता है, उसकी विधि भी जानते हैं, फिर केवल लिपि-शास्त्र की बात ही क्या ?


समीक्षा- सही बात है!यहां बुद्ध जी किसी का मस्तिष्क सुपर कम्प्यूटर से भी तीव्र नजर आ रहा है।तब ८० से अधिक लिपियाँ जानने की क्या ही बात है!


∆ बुद्ध का कोई आचार्य नहीं-


नेतस्य आचरिय उत्तरि वा त्रिलोके

सर्वेषु देवमनुजेष्वयमेव जेष्ठः।

नामापि तेष लिपिनां न हि वित्थ यूयं

यत्रष शिक्षितु पुरा बहुकल्पकोटयः ।।300।।

तीनों लोकों में अथवा उनसे ऊपर इन (बोधिसत्त्व) का कोई आचार्य नहीं है । ये ही सब देवताओं और मनुष्यों में ज्येष्ठ है। तुम सब उन लिपियों का नाम भी नहीं जानते हो, जिनको बहुत कल्प-कोटियों तक इन (बोधिसत्त्व) ने पहले सीखा है।


समीक्षा- कम से कम पौराणिक ग्रंथों में कृष्ण, राम आदि अवतारों का भी गुरुओं से शिक्षा लेना लिखा है।परंतु बौद्धों ने तो यहाँ पर और लंबी छलांग मारी है।अब बुद्ध जी बिना आचार्य के ही सबसे महान् विद्वान थे। यदि इस जमाने में वो पैदा होते, तो इनको दो दर्जन नोबल पुरस्कार और चार दर्जन पद्मश्री मिल चुके होते।


∆ बिना गुरु के सब लिपियों का ज्ञान-


यो चित्तधार जगतां विविधा विचित्रा

एकलक्षणेन अयु जानति शुद्धसत्त्वः ।

अदृश्यरूपरहितस्य गतिं च वेत्ति

किं वा पुनोऽथ लिपिनोऽक्षरदृश्यरूपां ।।301।।


लोगों की विविध एवं विचित्र जो चित्तधारां या चित्त-संतति है, उसे ये शुद्धसत्य एक क्षण में जान जाते हैं । अदृश्य तथा सुपरहित (भाव) की गति जानते हैं । फिर अक्षरों की दिखाई पड़ने वाली, रूपवती लिपियों (के जानने) की बात ही क्या ?


ऐसा कह कर वह देवपुत्र बोधिसत्त्व को दिव्य पुष्पों से पूजा कर वहीं अन्तहित हो गये।


3. तब धायों तथा चोटियों का दल वहीं ठहरा रहा, शेष शुद्धोदन आदि शाक्य लौट गए । तब बोधिसत्त्व उरग सारचन्दन के बने, दिव्यरंग के, सुनहले तिलक के', चारों ओर मणियों और रत्नों से जड़े हुए लिपिफलक लेकर आचार्य विश्वामित्र से यों कहा-है उपाध्याय मुझे कौन-सी लिपि

सिखायेंगे । (1) ब्राह्मी, (2) खरोष्ठी, (3) पुष्करसारी, (4) अङ्गलिपि, (5) वङ्गलिपि, (6) मगधलिपि, (7) मङ्गल्यलिपि, (8) अङ्गुलीयलिपि, (9) शकारलिपि, (10) ब्रह्मलिलिपि , (11) पारुष्यलिपि, (12) द्राविड़लिपि इत्यादि ।


समीक्षा- आगे ८०+ लिपियों का नाम दिया है और कहा है कि उनमें देव,असुर लोक की भी लिपियाँ थीं।वाह! सारे ब्रह्मांड की लिपियों के ज्ञाता थे बुद्ध! लेकिन उनके हाथ का लिखा एक भी अभिलेख आज नहीं मिलता है।


∆ विश्वामित्र जी का अपमान-


येषामहं नामधेयं लिपीनां न प्रजानमि ।

तत्रैष शिषित (:) सन्तो लिपिशालामुपागतः ।।303।।

जिन लिपियों का नाम मैं नहीं जानता, उनमें अनुशासन पा कर (भी) ये लिपिशाला में आए हैं।

वक्त्रं चास्य न पश्यामि मूर्धानं तस्य नेव च ।

शिष्ययिष्ये कथं ह्येनं लिपिप्रज्ञाय पारगं ।।304।।


मुझे (तेज की अधिकता के कारण) न तो इनका मुख दिखाई पड़ रहा है, और न शिर ही। इन लिपि-विषयक प्रज्ञा के पारगामी को मैं कैसे सिखाऊँगा?


समीक्षा- वाह! बिना पढ़ाये ही बुद्ध गुरु को भी मात कर देते थे! और फिर उनके चेहरे पर कौन सा सूर्य जलने लगा,जो विश्वामित्र जी अंधे होने लगे!


∆ बुद्ध ही परमेश्वर है-


देवदेवो ह्यतिदेवः सर्वदेवोत्तमो विभुः ।

असमश्च विशिष्टश्च लोकेष्वप्रतिपुङ्गलः ।।305।।

ये देवताओं के भी देवता हैं, अतिदेव अर्थात् महादेव हैं, सब देवताओं में श्रेष्ठ हैं, विभु अर्थात् प्रभु है, इनकी समता किसी से नहीं हो सकती, ये विशेष- (-पुरुष) हैं, लोकों में इनकी बराबरी का अन्य पुरुष नहीं है ।


अस्यैव त्वनुभावेन प्रज्ञोपाये विशेषतः ।

शिक्षितं शिष्ययिष्यामि सर्वलोकपरायणं ।।306।।

इन्हीं के प्रभाव से प्रज्ञा तथा उपाय (के विषय) में विशेष रूप से सब लोक को आश्रय देनी वाली शिक्षा को सिखाऊँगा?


( ललितविस्तर,लिपिशालासंदर्शनपरिवर्त,पृ.२५०-२५४)


समीक्षा- बुद्ध जी देवों के देव महादेव हैं, नहीं नहीं! उनके भी दादागुरु हैं। यहाँ पर 'विभु' कहा है, जो सर्वव्यापक परमेश्वर का वाचक है। क्यों जी! क्या अब भी नवबौद्ध परमेश्वर को नहीं मानेंगे?

दरअसल बुद्ध के जीवनी-ग्रंथ पढ़कर यही लगता है कि किसी तुषित नामक लोक में वे वैसे ही रहते होंगे, जैसा कि गोलोक में श्रीकृष्ण और वैकुंठ में विष्णु जी। और संसार का उद्धार करने हेतु अवतार लेते होंगे। तात्पर्य यह कि बुद्ध खुद ही परमेश्वर हैं।


अस्तु! अगले लेख में दिखायेंगे कि बुद्ध को किस तरह 'मल्टी-टैलेंटेड' दिखाया गया।


.. क्रमशः।


धन्यवाद ।









Credits: nastikwad khandan blogspot 

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