बौद्धों ने उपोसथ व्रत दूसरे मतों से ग्रहण किया था!!!
नमस्ते साथियों!
लेख श्रृंखला के धीमे होने के कारण हम आपसे क्षमा की आशा करते हैं। आप सब लोग नव बौद्धों के मुह से आये दिन सुनते रहते हैं कि फलानि चीज हिंदुओं ने बौद्धों से चुराई थी। इसमें शिल्प, विद्या और काव्यों के अलावा यह लोग हिंदू त्यौहारों, पर्वों और व्रतों पर भी दावा ठोकते हैं, और कहते हैं कि यह हिंदुओं ने बौद्धों से चुराया था। लेकिन आप सब लोग तीक्ष्ण अनुसंधान करें तो आप सब लोग स्पष्ट देखेगें कि लोगों ने इनसे नहीं बल्कि ये सब बौद्ध लोगों ने दूसरे मतों, देशों से कुछ न कुछ लिया है। बस उन चीजों में थोडा परिवर्तन सा कर दिया। जैसे रोमन देव ज्युपिटर और वैदिक इंद्र को मिलाकर बौद्ध देव वज्रपाणि बना दिया। पारसी शासक दारा से स्तम्भों पर लेखांकन की कला ली आदि। इसी तरह अन्य भी चीजें बौद्धों ने दूसरे मतों से ग्रहण की थी। बुद्ध का जीवनचरित्र भी महावीर स्वामी की नकल या अनुकरण लगता है। इसी तरह एक महत्वपूर्ण व्रत है - उपोसथ
यह आज पूर्णिमा, अष्टमी और प्रतिपदा आदि तिथियों पर भिन्न - भिन्न रुपों और मान्यताओं के अनुसार वैदिक, जेनों और बौद्धों में मिलता है।
बुद्ध के समय मक्खलि गोसाल, अजितकेसकंबल आदि के भी मत प्रचलित थे अतः उनके भी अपने उपोसथ व्रत रहे होगें।
वैदिक परम्परा में उपोसथ व्रत का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है -
"अथातोऽशनानशनस्यैव तदुहाषाढ साक्यसोऽनशनमेव व्रतं मेने मनो ह वै देवा मनुष्याजानन्ति तऽएनमेतछमुपयन्तं विद्रुः प्रातनो यक्ष्यतऽ इति तेऽस्यगृहेषुपवसन्तिऽस उपावसथः॥" - श.ब्रा.
यह पर्व शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा व कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को इष्टि यजन के दौरान आता था। इसमें प्रथम दिवस को उपवसथ कहते थे।
जैसा हम पहले बता चुके हैं कि बौद्धों में भी उपोसथ व्रत है जिसमें अष्टशील का आचरण किया जाता था -
अंगुत्तरनिकाय में इसका उल्लेख इस तरह है - "पार्ण न हञ्जे न चदिन्नमादिये। मुसा न भासे न च मज्जपोसिया। अब्रह्मचरिया विरमेय्य मेथुना, रतिं न भुञ्जेय विकालभोजनं। मालं न धारे न च गन्धमाचरे, मञ्चे छमायं व सयेथ सन्धते। एतं हि अट्ठगिकमाहुपोसथं, बुद्धेन दुक्खन्तगुना पकासितं"
लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अपनी शैशवावस्था में बौद्ध मत में कोई उपोसथ व्रत नहीं था किंतु भारत के अन्य मतों में विभिन्न रुपों में उपोसथ का विधान था। बौद्धों ने उपोसथ की संकल्पना वास्तव में दूसरे मतों से उधार ली थी। इसका पता हमें बौद्ध ग्रंथ "विनयपिटक" से ही चल जाता है। जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि बौद्धों ने उपोसथ की संकल्पना दूसरे अन्य मतों से ली थी।
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