पद्माप्राभृतकम् और बौद्ध भिक्षु
ये हमारे ब्लाग की दूसरी पोस्ट है। इससे पहले हमने हमारे मित्र भवितव्य आर्य के निर्देश पर मतविलासप्रहसन नाटक से पोस्ट की थी। जिसे आप सभी अपने लिंक पर पढ़ सकते हैं।
https://aproudhindubloging.blogspot.com/2023/03/blog-post_32.html?m=1
इसी कड़ी में दूसरा नाटक है। शूद्रक विरचित पद्माप्राभृतकम्। इन नाटकों में तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओं के नैतिक पतन और दोगलापन को दिखाया गया है। बौद्ध भिक्षुओं की कथनी और करनी में अंतर-दृश्य दिखाया गया है। ये उपदेश तो शील और संयम पर होते हैं उनका स्वयं का आचरण कितना निकृष्ट होता है। ये सब इस नाटक का एक अध्याय के माध्यम से बताया गया है।
ये नाटक विट नाटक है, जिसमें कुछ विट् (लोफर) अलग-अलग जगह (विशेषकर वैश्यालयों और विशलेयों) पर अलग-अलग व्यक्तियों से मिलते हैं। उन लोगों के साथ उनकी नौक झोंक और कटाक्ष को नाटक में दिखाया गया है। इन नाटकों के माध्यम से सामाजिक स्थिति और लोगों की मन स्थिति का भी दर्शन होता है। तो आईये जुड़ें करते हैं।
पद्मप्राभृतकम के 23 वें लेखा में विटों द्वारा एक बदनाम गलीं में बौद्ध भिक्षु को छुपाते हुए छिपाने के कारण देखने का वर्णन हैं। इसमें बौद्ध भिक्षु के लिए कुछ इतने मज़ेदार उपमायें लगे हुए हैं कि आपकी हंसी नहीं रूकेगी। जैसे - विहारबैताल अर्थात् सागर का भूत, उलूक उल्लू, वृथामुंड गांजा आदि।
"अ - कामवेश: कैटवस्योपेदेशो.....
1) परिक्रम्य, केश मलिनप्रवारा..... ................ विहारवेताल..... (ई) कस दत्तूत्रेष्वि....खल्विदावी...।
- पद्याप्राभृतकम 23 वां नाट्य दृश्य।
आकाशगंगाओं की नगरी, बदमाशी का अड्डा, धन लूटने का जंजाल, ठगी और बिगडे रहीसों के लिए रंग रेलिया का अड्डा आदि नामों से बदनाम एक गली थी। जहां सज्जा और निर्दन व्यक्ति नहीं होता था अर्थात् उससे दूर रहते थे। ऐसी ही बदनाम गली में नाट्य के नायकों अर्थात् लोफर विटों की प्रवेश होता है।
विटों को एक व्यक्ति उस बदनाम गलीं में दिखता है जो कि गंदी चादर से अपना बदन ढक कर देह को सिकोडे हुए एक बैश्या (रंडी) के आगन से जल्दी - जल्दी निकल रहा था।
विट् - अरे से कौन है? जो जल्दी - जल्दी छुपते छुपाते जा रहा हैं।
दूसरा विट् - अरें मैं देखता हूँ।
ऐसे में उस छिपकर जाते व्यक्ति का गैरुए रंग का चीवर गिर जाता है।
विट् - आ, यह तो दुष्ट बौद्ध भिक्षु संघिलक है। अहो बुद्ध शासन भी कैसा है जो ऐसे दुष्टों की चोट सहते हुए भी स्थिर है। लगता है इस भिक्षु ने मुझे देख लिया है, इसीलिए छिपकर भाग रहां है। चलो अब उसे हम अपनी बातों से चोट देते हैं अर्थात् इसके कुछ मजे लेते हैं।
विट बौद्ध भिक्षु से - अरे विहार के भूत (विहारबैताल)! उल्लू की तरह डरकर क्यों चलता है? क्या कहता है - "अभी तो सागर से चला आ रहा हूँ।" अरे तुम भंतों की विविधता की वास्तविकता हम अच्छे से जानते हैं। अरे बदमाश, वैश्या की बाडी से बताए गए बगुले की तरह सहम - सहम कर तू कहां भागा जा रहा है? क्या तू यहां पिंडपात की खोज में आया था? क्या कहता है - माता मरने से दुःखी बैश्या को बुद्ध वचन से सद्भाव दिया गया है? (यहाँ पर जाने पर बौद्ध भिक्षुओं ने जो घुला हुआ है उसे ही विट ने कटाक्ष की शैली में दोहराया है, धुंधला भिक्षुओं का झूठ और बहानेबाज होने का पता चलता है)
दुष्ट तेरे मुंह से निकला बुद्ध वचन ऐसा लगता है, जैसे शराब के धोखे में आचमन हो। खेद है -
यदि एक भिक्षु यदि एक बैश्या के पेट में घुसता है तो वो उसी प्रकार है जैसे दत्तक सूत्र (कामसूत्र का छठा तंत्र) में ओंकार का प्रयोग होना चाहिए।
क्या कहता है - हमें सभी जीवों पर दया दिखानी चाहिए। ठीक नित्य रहने वाले भदन्त तृष्णा के नाश से परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे। अरे तेरी ये बात ऐसी है जैसे कोई पेड़ वाइपने के पांडव से शराब को पियाये।
अब भिक्षु हाथ जोड़ता है।
जो कहता है - मुझे अब दो दो। ठीक है देने के लिए छोड़ दें जोखिम जोखिम के लिए दुर्लभ है। क्या कहता है - मैं जा रहा हूँ। अकाल भोजन से बचें। वाह रे तू और सब नियम पूरे कर चुके। पंचशील की उड़ने वाले इस भिक्षु के लिए यही बचा है कि उस समय भोजन के नियम भंग न हों। जा रहा है। ये धूल बाल मुंडाने के कारण अर्थात् टकला होने के कारण सिर पर दादों की चित्तियों से लजा जा रहा है। जा तू पूरा बुद्ध है। अच्छा हुआ यह खलबिला गया। तो अब इस गंधोले बौद्ध भिक्षु को देखने से मैली हुई अपनी आंख को कहां धोऊं।
नाटक के माध्यम से तत्कालीन बौद्धों का नैतिक पतन, बहाने बनाने की कला और वाक्छल को देख सकते हैं। यहीं कारण था कि जनता का बौद्धों के प्रति विश्वास कम होता गया और बौद्ध मत का भारत से ह्वास होने लगा था।
चारित्रिक पतन बौद्ध भिक्षुओं का ही नहीं गिरा था बल्कि भिक्षुणियों का भी गिरा था। जिन भिक्षुणियों को एकांत ध्यान और तप करना चाहिए था। वे भिक्षुणियां लव लैटर पास करने का या प्रेमदूती का काम करने लगी थी। ऐसी ही एक भिक्षुणी का वर्णन इसी नाटक के 21 वें अनुच्छेद में है। ऐसा भी नहीं है कि नाटककार ने बौद्धों से द्वेषपूर्वक ऐसा लिखा है बल्कि नाट्यकार ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के ही दर्शन कराये हैं। नाट्यकार ने ढोंगी ब्राह्मणों, छुआछूत करने वाले दोगलों पर भी ऐसे ही कटाक्ष रखे हैं।
संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकें -
1) चतुर्भाणी(चार नाटकों का संग्रह) - शब्दकोश श्री मोतीचंद्र
मुख्य पद:
https://nastikwadkhandan.blogspot.com/2020/02/blog-post_14.html?m=1
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