महाभारत की प्राचीनता कला, पुरातत्व, विदेशी यात्रा वृतांत और भू विज्ञान के आलोक में!!!

 महाभारत तथा उससे सम्बंधित पात्रों की प्राचीनता पर हमने पूर्व में अनेकों लेखों का प्रकाशन इसी ब्लाग पर किया था। जिसमें हमने अनेकों अभिलेखीय, पुरातात्विक प्रमाण प्रस्तुत किये थे। श्री कृष्ण की प्राचीनता पर अभिलेखीय और प्राचीन मुद्राओं के प्रमाण दिये थे। आज कुछ अन्य प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि असल में पूर्व दिये गये प्रमाणों को ही पुष्ट करते हैं। लेख का मूल उद्देश्य महाभारत की प्रसिद्धि को मौर्य और बुद्धकाल से प्राचीन सिद्ध करना है। 


(1) महाभारत में वर्णित प्राचीन वाराणसी की भूसम्बंधित तथा पुरातत्वीय अध्ययनों से पुष्टि - 


महाभारत में अनुशासन पर्व के अंतर्गत दिवोदास के द्वारा गंगा के उत्तर तथा गोमती के दक्षिण किनारे पर वाराणसी बसाने का उल्लेख है किंतु वर्तमान वाराणसी इससे भिन्न है। प्रिंस ओफ वैल्स म्युजियम बंबई के डारेक्टर मोतीचंद्र जी ने प्राचीन वाराणसी की पहचान वैरांट नामक प्राचीन टीले से की है। तथा उन्होनें गंगा नदी की महाभारत कालीन धारा की वर्तमान धारा से तुलना भी की है। उनका मत है कि जैसा महाभारत में वर्णित है कि प्राचीन वाराणसी की स्थिति वैरांट पर थी किंतु मौर्य काल से पूर्व गंगा की धारा में बदलाव आ गया और वाराणसी की स्थिति उस जगह हो गयी जिस जगह वर्तमान नयी वाराणसी है। पाठक उनकी पुस्तक काशी का इतिहास का निम्न खंड पढें - 


- काशी का इतिहास, पृष्ठ संख्या 13 - 14 


इससे स्पष्ट है कि महाभारत जिस वाराणसी का वर्णन कर रहा है, वह नगर मौर्य पूर्व था अत: महाभारत को किसी भी तरह से मौर्य बाद नहीं स्वीकारा जा सकता है। 


(2) मैगस्थनीज द्वारा श्रीकृष्ण का उल्लेख - 


श्रीकृष्ण की प्राचीनता के प्रमाण में हम अनेकों पूर्व मौर्य से शुंग तथा गणराज्य मुद्राओं को दिखा चुके हैं। जिससे कृष्ण की प्राचीनता सिद्ध होती है। अत: महाभारत इनसे प्राचीन सिद्ध होती है क्योंकि बिना महाभारत के श्रीकृष्ण की प्रसिद्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मैगस्थनीज ने भी श्रीकृष्ण का उल्लेख शोरसेनी (जिसमें मथूरा भी था) के ईष्ट देव के रुप में किया था। मैगस्थनीज ने ग्रीक प्रभाव के कारण इन्हें हेराक्लीज लिखा था। यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे कोई हिंदू अन्य देशों के प्राचीन शिल्पों में हनुमान, शिव, राम और शिवलिंग देख लेते हैं। उसी तरह यूनानी यात्री जहां - जहां गये थे, वहां - वहां उन्होने हरक्युलिस आदि को पाया जैसे हेरोडोटस ने शक, इजिप्ट में हरक्युलिस का उल्लेख किया है जबकि इजिप्ट में प्रमुख देव "अमन राॅ" था जिसे सम्भवतः हेराक्लीज समझकर वर्णन किया गया लगता है। ऐसा ही भारत में श्रीकृष्ण को हेराक्लीज के रुप में यूनानियों ने उल्लेख किया है। हम मैगस्थनीज के हेराक्लीज की श्रीकृष्ण के साथ समानता के कुछ तुलनात्मक प्रमाण देते हैं - diod. II. 35 - 42 में मैगस्थनीज को उद्धृत करते हुए लिखा है - 


- खंड 1, मेगास्थिनीज का भारत वर्णन, पृष्ठ 23


यहां हेराक्लीज को दंड धारी लिखा है। श्रीकृष्ण का प्राचीन शिला चित्रों और मुद्राओं पर निरुपण चक्र व दंड (गदा) धारी दिखता है। बलराम का भी ऐसा ही चित्रण है। दूसरा कथन है कि हेराक्लीज ने समुद्र व पृथ्वी को अनेकों दुष्ट जंतुओं से मुक्त किया था। इसकी तुलना हम कृष्ण द्वारा बकासुर, कालिया, केशी, वत्सासुर आदि के मर्दन या वध से कर सकते हैं। 


अनेक विवाह और अनेक पुत्र व एक पुत्री का कथन भी श्रीकृष्ण से तुलना किया जा सकता है, क्योंकि श्री कृष्ण के अनेकों पत्नियों, पुत्रों तथा एक पुत्री का उल्लेख अनेकों ग्रंथों में है। उनकी एक पुत्री चारुमति का नाम अनेकों स्थानों पर है - 


- पौराणिक कोश, पृष्ठ 172

इसी तरह मैगस्थनीज ने शोरसेनियों के ईष्ट के रुप में हेराक्लीज को लिखा है - 

- Why the common roots of homer and vyasa? Comparative mythemes in iliad and odyssea and the mahabharata  

Edwin f. bryant ने भी हेराक्लीज की पहचान कृष्ण के रुप में की है। उन्होंने मेगास्थिनीज द्वारा उद्धृत वर्णन के विषय में लिखा है - 

- Krishna: A sourcebook, page no. 5

edwin f. bryant के अनुसार मेगास्थिनीज द्वारा उल्लेखनीय हेराक्लीज जिसकी पूजा शोरसेनी लोग करते हैं, वह कृष्ण या हरे कृष्ण हैं। तथा शोरसेनी और उसके दो शहरों के नाम जैसे मेथोरा और क्लेशिबोरा क्रमशः मथूरा और कृष्णपुरा के समानांतर है। ये स्थल कृष्ण के जन्मस्थान और पूजा के लिए प्रसिद्ध हैं। जोबारिश नदी की समानता जमुना से की गयी है। edwin f. bryant ने यह भी लिखा है कि ग्रीक लेखक प्रायः दूसरे देशों के देवों का वर्णन, अपने ग्रीक देवों की तरह करते थे। इतना ही नहीं हेराक्लीज की तस्वीर पोरस के सैनिकों के झंडों पर भी थी।

शोरसेनी तथा मथूरा क्षेत्र में प्राचीनकाल से ही श्रीकृष्ण की प्रसिद्धि थी। अत: मैगस्थनीज के उल्लेख की तुलना ग्रंथों, मुद्राओं और शैलचित्रों से करने पर सिद्ध होता है कि मैगस्थनीज ने श्रीकृष्ण का ही उल्लेख किया था। अतः श्रीकृष्ण की मान्यता मैगस्थनीज पूर्व होने से, महाभारत की भी प्राचीनता अपने आप ही सिद्ध हो जाती है। 

अब हम शैलचित्र, मुद्राओं पर बनी चक्र तथा दंडधारी आकृतियाँ श्रीकृष्ण ही है। इस संदर्भ में कुछ और प्रमाण प्रस्तुत करते हैं - 

गांधार के chilas नामक स्थान से कुछ शैलचित्र प्राप्त हुए हैं। जिनमें कुछ चित्रों में दंड (गदा) और चक्र धारण किये हुए श्रीकृष्ण या वासुदेव हैं तथा उन्हीं के साथ हल धारण किये बलराम या बलदेव भी है। 



- Early Buddhist Transmission and trade networks, page 272

इन आकृतियों को निम्न चित्रों में देखें - 

- Early Buddhist Transmission and trade networks, page 273


यही चित्र एक और अन्य पुस्तक में भी है - 


- Antiquities of northern pakistan reports and studies, plate 18, 7.2-7.6


कृष्ण और बलराम का एक और अन्य चित्र इन्हीं शैलचित्रों में इस तरह है - 


- Antiquities of northern pakistan reports and studies, plate 4, 1.2


यहां चक्र दंड धारण किये हुए श्रीकृष्ण को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं इन सब चित्रों के साथ खरोष्ठी लिपि में लेख भी है जो कि 100 ईसापूर्व - 100 ईस्वी तक के मध्य प्रचलित शैली में है। इन खरोष्ठी लेखों में स्पष्टतः नं. - 1.2 राम (कृषं) अर्थात् बलराम और कृष्ण तथा 7.3 - वलदेबो अर्थात् बलदेव या बलराम व 7.6 - वासुदेवो पढा जा सकता है। जिन्हें हमने उपरोक्त चित्रों में लाल रेखांकित भी किया है। 

इन चित्रों के साथ आए खरोष्ठी लेखों के पाठों को निम्न चित्र से भी सत्यापित किया जा सकता है - 

- Early Buddhist Transmission and trade networks, page 272, footnote


इन शैलचित्रों तथा इनके साथ लिखे खरोष्ठी लेखों से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में चक्र और दंड सहित भगवान वासुदेव अर्थात् श्री कृष्ण का ही चित्रण होता था। खरोष्ठी लेखों में उद्धृत बलदेव, वासुदेव, बलराम व कृष्ण नामों ने इस तथ्य को और ज्यादा पुष्टि प्रदान की है। 

अत: प्राचीन शैलचित्र व मुद्राओं में उकेरी गयी आकृतियां श्री कृष्ण व बलराम ही है। अभिलेखों जैसे - नागनिका का अभिलेख, हाथीबाडा का अभिलेख, हेलोडोरस का गरुड स्तम्भ लेख तथा शोडास के पंचवृष्णि लेखों में भी वासुदेव व बलराम का स्पष्ट उल्लेख है। इतना ही नहीं मथूरा में प्राचीनकाल से ही वासुदेव मंदिर बनने लगे थे। जिसका प्रमाण निम्न अभिलेख है -

- Vrsnis in Ancient art and literature, page no. 83


इस अभिलेख के अनुसार वासुदेव मंदिर में वासु नामक एक व्यक्ति द्वारा महा क्षत्रप शोडास के काल में तोरण द्वार और वेदिका बनवाने का उल्लेख है। 

इससे पता चलता है कि यदि शोडास के समय मंदिर का तोरणद्वार भेंट किया गया था तो मंदिर तो काफी प्राचीन होगा। शोडस का काल 100 ईसापूर्व माना जाता है। अत: यह वासुदेव मंदिर इससे भी प्राचीन होगा। 

अत: हम कह सकते है कि ईस्वी से सैकडों वर्ष पूर्व मथूरा (शौरसेनी क्षेत्र में) कृष्ण की अत्यंत प्रसिद्धि थी। वे एक ईष्ट के रुप में स्थापित हो चुके थे। अतैव मैगस्थनीज ने शौरसेनियों द्वारा जिस हेराक्लीज को देखा था, वह वासुदेव ही थे। इसकी तुलना हमने शैल चित्रों, मुद्राओं और अभिलेखों से भी कर दी थी। 

इस सम्बंध में हम कुछ ग्रंथों के भी प्रमाण रखते हैं, जिससे स्पष्ट हो जायेगा कि पूर्व मौर्य से अब तक दंड (गदा) व चक्र सहित वासुदेव कृष्ण को ही दर्शाया जाता रहा है। 

अग्नि पुराण 49.10 में वासुदेव के हाथों में दंड (गदा) और चक्र बनाने का उल्लेख है। इसी अध्याय के 11 वें श्लोक में वासुदेव की द्वि हस्त और चतुर्हस्त प्रतिमाओं को बनाने का उल्लेख है। द्विहस्त चित्रांकन के उदाहरण हम ऊपर देख चुके हैं। 

- अग्निपुराण ,49 . 10 - 11


इसी प्रकार मत्स्य पुराण 258. 9 - 10 में भी वासुदेव कृष्ण प्रतिमाओं में दंड, चक्र बनाने का उल्लेख है - 


- मत्स्य पुराण 258. 9 - 10


इन प्रमाणों से सिद्ध है कि पूर्व मौर्य काल से लेकर अब तक कृष्ण का चित्रांकन एक ही रूप में हो रहा है। 

अतः शौरसेन में मैगस्थनीज द्वारा देखे गये ईष्ट वासुदेव ही थे। क्योंकि प्राचीन कलाओं में दंड (गदा) धारण किये हुए वासुदेव को ही दर्शाया है। शौरसेनी प्रदेश में वासुदेव की प्रतिमायें और मंदिर प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। अनेकों अभिलेखों और मेगस्थनीज के बाद के यूनानी दूतों ने भी वासुदेव का ही चित्रांकन और स्तम्भ अभिलेखों में उल्लेख किया है। मैगस्थनीज का हेराक्लीज के सम्बन्ध में अनेक पत्नियों, पुत्रों तथा एक पुत्री का कथन भी श्रीकृष्ण से ही सम्भावित समानता प्रकट करता है। अतैव: यह प्रमाणित होता है कि वासुदेव की प्रसिद्धि मौर्यों से भी पूर्व थी और कृष्ण की मौर्य पूर्व स्थापना होने से, महाभारत की प्राचीनता स्वत: मौर्य पूर्व चली जाती है। क्योंकि श्रीकृष्ण की प्रसिद्धि की बिना महाभारत के कल्पना ही नहीं की जा सकती है। 


(3) पिपीलिका सुवर्ण का उल्लेख - 

मैगस्थनीज द्वारा अपने यात्रा वृत्तांत में भारत के लिए सबसे अजीब चीज लिखी है तो वह है - सोना खोदने वाली चींटियां

Strabo XV, 1.44 में मैगस्थनीज को उद्धृत करते हुए लिखा है - 


- खंड ३९, मेगास्थिनीज का भारत वर्णन, पृष्ठ . 78-79

Arr. Ind XV, 5-7 पर मेगास्थिनीज को उद्धृत करते हुए लिखा है -



- खंड ४०, मेगास्थिनीज का भारत वर्णन, पृष्ठ. 80


सोना खोदने वाली चींटियों का वर्णन मेगास्थिनीज के अलावा ग्रीक लेखक हेराडोटस (लगभग 400 ईसापूर्व के आसपास) ने भी किया था -

हेराडोटस ने लोमडियों के आकार की सोना खोदने वाली चींटियों का उल्लेख किया है - 



- Book III, 102, Herodotus, vol. II, page no.129 - 131


इन दोनों ग्रीक लेखकों के कथनों से ज्ञात होता है कि पूर्व मौर्य और मौर्य काल तक भारत में सोना खोदने वाली चींटियों की मान्यता प्रचलित रही है।

इसी तरह का एक उल्लेख हमें महाभारत में भी मिलता है - 


- द्विपञ्चाशत्तमोऽध्याय:, सभापर्वणि, श्लोक ४, महाभारत


यहां युधिष्ठिर को विभिन्न राज्यों से मिली भेटों में से एक भेंट पिपीलिका नामक सुवर्ण है अर्थात् चींटियों द्वारा खोदा गया सोना।

इस प्रकार हम देखते हैं कि चींटियों द्वारा खोदे गये सोने की मान्यता हमें महाभारत काल से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य काल तक मिलती है।

इसके बाद हमें इस प्रकार के सुवर्ण का उल्लेख न तो अशोक के अभिलेख में मिलता है। न ही अन्य उसके बाद के उल्लेखों और अभिलेखों में, अतः महाभारत को पूर्व मौर्यकाल से प्राचीन ही मानना पड़ेगा। हेरोडोटस और महाभारत दोनों में पिपीलिका नामक सुवर्ण का उल्लेख सिद्ध करता है कि बौद्ध काल के आसपास भी इस तरह की मान्यतायें थी अतः महाभारत बौद्धकाल से भी प्राचीन सिद्ध होता है। क्योंकि बुद्ध की प्रसिद्धि अशोक तथा कनिष्क के काल में जाकर सर्वाधिक हुई थी। महाभारत के पीपिलिका सुवर्ण और कृष्ण का वर्णन हेरोडोटस और मेगास्थिनीज के वर्तनों में मिलता है जबकि बुद्ध का नहीं, अतैव महाभारत की प्रसिद्धि बुद्ध तथा मौर्यकाल में होना सिद्ध होती है जो कि सम्भवतः बुद्ध से भी ज्यादा थी। बुद्ध की प्रसिद्धि अशोक और कनिष्क काल में अत्यधिक हुई थी। इसीलिए हम कह सकते हैं कि महाभारत मौर्य और बुद्धकाल में भी अस्तित्वमान थी।


(4) शकुंतला और दुष्यंत की कथा - 

महाभारत की यह प्रसिद्ध कथा बाद में विस्तारित होकर कालिदास द्वारा प्रसिद्ध अभिज्ञान शाकुन्तलम् बनी।

महाभारत में उद्धृत इस कथा का चित्रांकन भीटा से मिली एक मिट्टी की मोहर पर मिलता है - 



- Masterpieces of indian Terracottas , fig. 35


इस मोहर का रेखाचित्र आप पुरातत्व विभाग की निम्न रिपोर्ट में देख सकते हैं - 


- Archaeological survey of India, annual report 1911-12, plate XXIV 


नागरी प्रचारिणी पत्रिका के केशव स्मृति अंक में इस मोहर पर बने चित्रांकन को अभिज्ञान शाकुन्तलम् से सम्बंधित बताया है - 


- नागरी प्रचारिणी पत्रिका, केशव स्मृति अंक सं. 2008, पृष्ठ. 331


यहां मोहर को अभिज्ञान शाकुन्तलम् से सम्बंधित बताया है। यह मोहर लगभग 200 ईसापूर्व की मानी जाती है। यहां हमारा मानना है कि यह मोहर महाभारत की कथा के अधिक निकट है। वासुदेवशरण अग्रवाल जी ने भी अपनी पुस्तक "भारतीय कला" में रानीगुम्फा के एक फलक को महाभारत की शकुंतला और दुष्यंत की कथा से सम्बंधित बताया है।


- भारतीय कला (प्रारंभिक युग से तीसरी शती तक), पृष्ठ. २२३ - २२४


इन सब प्रमाणों से निष्कर्ष निकलता है कि महाभारत की मान्यता पूर्व ईस्वी शताब्दियों से चली आ रही है। महाभारत का जनमानस में इतना प्रचलन था कि उस पर आधारित कथाओं और पात्रों का चित्रांकन विभिन्न मोहरों, मुद्राओं और शैलचित्रों में होने लगा था। महाभारत में प्रचलित मान्यताओं की झलक हमें भारत आये विदेशी यात्रियों के वृत्तांतों में भी दिखाई देता है। जैसे - पिपीलिका सुवर्ण, वासुदेव आदि।

अतः हम महाभारत को मौर्य व बुद्ध काल से प्राचीन मान सकते हैं।


संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तकें - 

1) काशी का इतिहास - डा. मोतीचन्द्र 

2) मेगास्थिनीज का भारत वर्णन - अनु. रामचन्द्र शुक्ल 

3) पौराणिक कोश - राणाप्रसाद शर्मा 

4) Why the common roots of homer and vyasa? Comparative mythemes in iliad and odyssea and the mahabharata - Koenraad Elst 

5) Early Buddhist Transmission and trade networks - Jason neelis

6) Antiquities of northern pakistan reports and studies vol. 1

7)Vrsnis in Ancient art and literature

 - Vinay Kumar Gupta 

8) अग्निपुराणम् - अनु. आचार्य शिवप्रसाद द्विवेदी 

9) मत्स्य पुराण - गीता प्रेस गोरखपुर से

10) Herodotus, vol. II - Trans. A.D. Godley

11) श्रीमहाभारते - गीता प्रेस गोरखपुर 

12) Masterpieces of indian Terracottas 

           - M. K. Dhavalikar

13) Archaeological survey of India, annual report 1911-12

14) नागरी प्रचारिणी पत्रिका, केशव स्मृति अंक सं. 2008

15) भारतीय कला (प्रारंभिक युग से तीसरी शती तक) 

             - वासुदेव शरण अग्रवाल 

16) Krishna: A sourcebook - Edwin F. Bryant

  


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